जब भी मैं सोचती हूँ क्या तुम मुझे याद करते हो -
साथ में ये ज़रूर सोचती हूँ,
जिसे तुम याद करोगे भी वो मैं तो थी ही नहीं।
तुम जिससे मिले, जिससे बातें कीं
और जिससे प्यार का दावा किया
वो मैं नहीं थी
वो तुम्हारी बंधुआ मज़दूर थी।
वो वाले, जिनके बारे में किसी हकीम ने हाल ही में कहा
"कोई बंधुआ नहीं होता!!
सब अपने मर्ज़ी से खुद आते है!"
चलो! पता तो चला!
उनसे पता चला भूख कुछ नही होती
पेट की भी नहीं
प्यार की भी नहीं।
सिर्फ़ लेबर प्रोब्लेम्स होते हैं
सिर्फ़ समझ का फेर
किस काम के बदले क्या मिलेगा और कब तक
तुम्हारी समझ अलग और मेरी समझ अलग
पर काम तय था।
काम एक तरफ़ा था।
मेहनत एक तरफ़ा थी।
ज़िम्मेदारी भी एक तरफ़ा थी।
इंटों के ढेर के नीचे दबी लाश
अपने ठन्डे होते हुए बदन और ठंडे पड़ते दिल लिए जानती थी
ज़िम्मेदारी सिर्फ़ एक की ही थी।
और हकीमसा'ब भी ठीक यही जानते थे।