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-वीरेंद्र चट्टोपाध्याय
अनुवाद: नयना
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मेरा भारतवर्ष
उन पचास करोड़ नग्न इंसानों का है
जो धूप में मेहनत करते हैं सारा दिन,
और रात में सो नहीं पाते
जाने कितने राजा आते हैं, चले जाते हैं
इतिहास के आसमान को
ज़हरीला कर जाते हैं ईर्ष्या और द्वेष से
पानी काला हो जाता है, धुएं और कोहरे से
हवा में अँधेरा छा जाता है।
चारों तरफ षड्यंत्र, चारों तरफ लालचियों का प्रलाप
युद्ध और भुखमरी आती है एक दूसरे के होंठ चूमते हुए
धरती काँप उठती है सांप के दंश से, शेर के झपटने से;
लेकिन मेरा भारतवर्ष नहीं पहचानता इन्हें
नहीं मानता इनके फ़रमान;
उसकी संतानें भूख में
ठंड में
चारों तरफ के इस भीषण उन्माद में
आज भी हैं ईश्वर की संतान,
हैं एक दूसरे की सहोदर!
Image courtesy: DNA
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