Tuesday, December 25, 2018

अमलकांति

अमलकांति मेरा दोस्त है 
 हम स्कूल में एक साथ पढ़ते थे। 
 रोज़ देर से आता था, और सबक कभी न याद रहता था उसे। 
 शब्द-रूप पूछो तो ऐसे हैरानी से खिड़की की ओर देखता था 
 दिल में टीस-सी होती थी हमें |
 
 हम में से कोई मास्टर बनना चाहता था, कोई डॉक्टर, कोई वकील 
 अमलकांति इन में से कुछ भी नहीं बनना चाहता था। 

 वो धूप बनना चाहता था। 
 वो शर्मीली-सी धूप, जो बारिश रुकने के बाद शाम को निकलती है 
 वही जो जामुन के पत्ते पे ज़रा सी हँसी की तरह फैल जाया करती है ...


 हम में से कोई मास्टर बना, कोई डॉक्टर, कोई वकील 
 अमलकांति धूप न बन सका। 
 वह अभी एक अँधेरी प्रेस में काम करता है 
 और कभी-कभी मुझसे मिलने आता है। 
 चाय पीता है, इधर-उधर की बातें करता है 
 और बोलता है, "चलता हूँ फिर!" 
 मैं उसे दरवाज़े तक छोड के आता हूँ।
 
 हम लोगो में से जो मास्टर बना,
 वह आराम से डॉक्टर बन सकता था 
 जो डॉक्टर बनना चाहता था 
 वह अगर वकील बनता तो कोई नुकसान न था।
 
 पर सबकी इच्छाएं पूरी हुई, सिवाय अमलकांति केे। 
 वही अमलकांति, जो धूप के बारे में

 सोचते सोचते ...
 सोचते सोचते ..
 एक दिन खुद धूप बन जाना चाहता था।
 










~ Nirendranath Chakrabarty 
(ये बंगाली भाषा के कवि हैं, जिनका निधन साल 2018, दिसंबर में हुआ) 

Translation : Nayana/नयना 

Wednesday, December 12, 2018

"मुझसे इश्क़ करने के बाद"

"मुझसे इश्क़ करने के बाद"

(बांग्लादेशी कवि : हुमायूँ आज़ाद)
(हिंदी ट्रांसलेशन : नयना)
 ________

 मुझसे इश्क़ करने के बाद तुम्हारा कुछ भी पहले जैसा नहीं रह पायेगा। 
 जैसे हिरोशिमा के बाद 
 उत्तरी से दक्षिणी मेरु तक कुछ भी पहले जैसा नहीं रहा।
 
 दरवाजे पर जो घंटी बजी ही नहीं, उसीको सुनोगी बार बार 
 सब दरवाजे खिड़कियाँ काँप उठेंगे और तुम्हारा दिल भी 
 जैसे बिजली गिरी हो! 
 अगले ही पल तुम्हारा छन छन बोलता, इधर उधर दौड़ता खून, 
 ठंडा पढ़ जाएगा| 
 जैसे सन इकहत्तर में दरवाजे पर बूट की अजीब आवाज़ से 
 ढाका की आवाम सुन्न हो जाया करती थी।
 
 मुझसे इश्क़ करने के बाद कुछ भी पहले जैसा नहीं रह जायेगा 
 रास्ते में उतरते ही देखोगी जैसे सामने से आनेवाली हर एक रिक्शा में
मै ही चला आ रहा हूँ भागता हुआ
और बिना रुके, तुमसे दूर जा रहा हूँ । 
 इधर उधर ।
बस यूँ ही! कहीं भी!

तब तुम्हारे खून और काले चश्में में इतना गहरा अँधेरा छायेगा.. 
 जैसे उन आँखो से तुमने कभी भी, कुछ भी न देखा हो।
 
मुझसे प्यार करने के बाद तुम भूल जाओगी वास्तव -अवास्तव 
सच और सपने का फ़र्क़ । 

सीढ़ी समझकर पैर रख दोगी सपनों के शिखर पर
हरी घास समझकर बैठ जाओगी अवास्तव पर 
और लाल फूल समझकर 
बालों में गूँथ लोगी ढेर सारे सपने।
 
बंद शावर के नीचे खड़ी रह जाओगी 
बारह दिसंबर से समय के अंत तक.... 
यही सोचते हुए के तुम्हारे बाल, शरीर, गर्दन और होठों को 
बोदलेयर* के अद्भुत बादल छू के जा रहे है निरन्तर ....
 



तुम्हारे जिन होठों को चूमा था कोई उद्यमी प्रेमी 
मुझ से प्यार करने के बाद, तुम खो दोगी वह होंठ 
और वहां उग आयेगा एक सुन्दर गुलाब।
 
मुझसे इश्क़ करने के बाद तुम्हारा कुछ भी पहले जैसा नहीं रह जायेगा 
लगेगा जैसे कोई, 
कभी न ठीक होनेवाली बीमारी है तुम्हे सदियों से, 
लेटी हो अस्पताल में। 

दूसरी ही मिनट लगेगा जैसे 
मानव इतिहास में एक तुम ही हो स्वस्थ, 
और बाकी सब बहुत बीमार है।
 
शहर और सभ्यता की गंदी नालियां पार करके चौराहे पे आके 
जब मेरा हाथ पकड़ोगी तुम,
तब तुम्हें लगेगा कि जैसे यह शहर और बीसवीं सदी के 
जीवन और सभ्यता के मैले पानी में 
आसमान छूती हुई एक मृणाल के ऊपर तुम ही हो खिली हुई 

निष्पाप विशुद्ध कमल। 
पवित्र अजर।।

 

( *Baudelaire; the French poet is referred to here)

Saturday, August 11, 2018

বোঝা না বোঝার গল্প

দীপা একটু চাপা স্বভাবের মেয়ে। 
নিমতার দিকে বাড়ি ওর।  
ওকে বলছে অনেকে ক্ষেদের সুরে, তারা বুঝতে পারেনি ওকে!    
ওর স্বভাবই দায়ী তার জন্যে।  

সমর বুঝতে পারেনি, দীপা সারাদিন না খেয়ে এতো কষ্টে ছিল যে,
সেই দুপুরে প্রেমের কথা শুনতে ওর বিশ্রী লেগেছিল'!
সমর বুঝতে পারেনি দীপা সত্যি সত্যিই  বোঝাতে চেয়েছিল' ওর কষ্টটা,
"আমার ভীষণ খিদে পায় জানো!"
মুচকি হেসে, আদুরে গলায় সমর বলেছিল', "হ্যাংলা কোথাকার!"
অনেক বছর পর ওদের আবার যখন দেখা হয়, 
ও বলেছিল', আরও অনেক বেশি বিচলিত হওয়া উচিৎ ছিল দীপার।  
প্রায় কেঁদে ফেলার উপক্রম করলে, সমর হয়তো বুঝতে পারতো, 
ও সত্যিই খেতে পাচ্ছিল' না ওই সময়! 
 দীপা প্রায় কখনই কারোর সামনে কেঁদে ফেলতে পারেনি।  
আর তাই দীপাকে ঠিক বুঝে ওঠা হয়নি কারো।  
সমর বলেছিলো, "বুঝিয়ে দিতে পারতে তো?" 

অশোককে  অনেকেই বলেছে, 
ওর এই উদ্ভট ভাবনাচিন্তা তাদের বোঝার বাইরে!
তাদের গলায় রাগ ছিল।  বা ছিল ওকে নিয়ে দুশ্চিন্তা।  
তারা ওকে প্রায়ই বুঝিয়েছে, "কাজ আর বাড়ি আলাদা!"
"এতো আদর্শ বাড়ি বয়ে আনলে, ঘর সংসার হয় না। " 
"Personal is political" অশোক বলাতে হেসে উঠেছিল বিক্রম।  
"কি বাজে বকছিস! এরকম কিছু হয় না!"
সেদিন মার্চের বিকেলে ওরাও এসেছিলো,
দশ লক্ষ মানুষ যখন উঠে দাঁড়িয়েছিল নারী-হিংসার বিরুদ্ধে।  
"এই সমস্ত কাজকে ব্যক্তিগত সমর্থন জানাতে আসি আমি,"
"হলামই বা ব্যাঙ্ক এর লোক", বিক্রম বলেছিলো।  
একটু ইতস্তত করেছিল অশোক, শেষ পর্যন্ত মনে না করিয়ে দিয়ে পারেনি যে 
গীতার প্রতি বিক্রমেরে ব্যবহারটা ঠিক শান্তি বা সমানতার আওতায় ফেলা যায় না।  
"ওটা ব্যক্তিগত ব্যাপার আমাদের।  সব জায়গায় সব কথা টেনে আনিস না !" 
ময়দানের ব্যক্তিগত আর ঘরের ব্যক্তিগত ব্যাপারগুলোর পার্থক্য অশোক এখনো বুঝে উঠতে পারেনি।  
পারবে বলে মনেও হয় না।  

জাভেদের বহুবার মনে হয়েছে, বুঝে নেওয়ার দায়িত্ব একমাত্র ওর।  
মা বাবা, দাদা বৌদির সারা সপ্তাহের সমস্ত না-বোঝার আক্ষেপরা,
 ওর অপেক্ষায় থাকে।
ওর রবিবারগুলো, সপ্তাহের বাকি দিন গুলোর থেকেও ভারী হয়ে ওঠে কখনো কখনো।     
ও বুঝে বা না বুঝে, সারাদিন বোঝার ভাণ করে, সেইদিন।  
রবিবার ওর বুঝবার দিন।  
সবার বরাদ্দ সময় আছে।  
সবাই বুঝে নেয় নিজের নিজের পাওনা।  
সোমবার এলে ধোয়া জামাকাপড়ের ব্যাগ হাতে আবার রওনা হয় ও।  
ভালোই আছে, খালি বাবা বিয়ের কথা বললে জাভেদ ভয় পায়।  
আরও একজনকে বুঝে চলার বোঝা ও পারবে কি বইতে?
যদি সেই গল্পের উটের মতো ওরও পিঠ ভেঙে পড়ে ?
বন্ধুরা বলেছে ওকে, ওতো না বুঝলেই তো হয়।  
ও মনে মনে জানে, খুব সাধারণ চেহারা ও স্বভাবের জাভেদকে
এই বুঝে চলাটুকুর জন্যেই বাড়ির লোকে সহ্য করে!
নাকি ওরা সত্যিই ভালোবাসে ওকে? 
পরীক্ষা করে দেখার সাহস নেই বাড়ির সেজো ছেলে জাভেদের।  

​"তোকে আমি বড্ডো ভালোবাসি"  গলা ফাটিয়ে বলেছিলো স্মিতা। 
ওর রিনরিনে গলা আকাশ ছুঁচ্ছিল সেদিন।  
স্মিতার বাচ্চাদের মতো সরু পিঠে হালকা চাপড় মেরে বলেছিল তিমির, 
" ভালোবাসা!! বাহ্ বাহ্! দারুন কথা বললি!
"তুইও প্রেম করতে চাস, বল?"
জোরে হেসে উঠেছিলো দুজনেই,
আকাশের দিকে ছোঁড়া ওদের হাতে হাতে তালির শব্দও যেন হেসে উঠেছিল সেই সঙ্গে ।  

সেই বছরের শেষের দিকে,
তিমিরের বিয়ের খবরে থমকে গেছিলো স্মিতা...
 তিমির বলেছিলো,"বোঝার মতো করে বলবি তো! 
অমনি করে ভালোবাসার কথা বলে নাকি কেও?" 
রিনরিনে গলাটা এবার যেন একটু খাদের দিকে নামছিলো। 
"পারবি তুই তিমির? বোঝার পরও পারবি?" 
বুঝলে কি পারতো, প্রশ্নটা তিমিরেরও ছিল সেদিন, 
আর বোঝেনি কি সত্যিই সে? সেই প্রশ্নটাও!   

আহ! কেন যে বুঝে নিতে হয়? 
বুঝে নেবার দরকার কি? না বুঝলে কি হয়? 
কেন বুঝে যেতে হয় কারোর চলে যাওয়া
কেন অবুঝ হলে ফেরত আসে না তারা,
ভাবে শাবানা মনে মনে। 
ভাবে আকাশ যেরকম কাঁদে কারোর কোনো তোয়াক্কা না করে,
আকাশের যেমন বুঝদার হবার দায় নেই, তারও না থাকলে ভালো হতো!
বুঝদার হয়ে, কিই বা ভালো হয়েছে কারোর! 
নিজের ওপরেই রেগে  হাতের চাবি ছোঁড়ে দেয়ালে শাবানা, 
আর মন দিয়ে দেখে দেওয়ালের গায়ের ক্ষত। 
দেয়াল ক্ষত বিক্ষত হয়েও চুপ করে থাকে।   

আর ফিস ফিস করে বলে দীপা  সমরকে, "বুঝতে পারলে কি কিছু বদলে যায়?" 

Monday, July 9, 2018

When you have all the time of the world..

Come back when you have all the time of the world
Almost a whole life,
I have lots to talk to you!
Come back when we can finally sit face to face,
Without the worries of the world.
I have lots to ask.

I want to ask were the lies really necessary?
Or was it that the truth became as meaningless as the lies?
 By then!
No! you do not have to segregate them.
Not, if you do not want to.
You can remain as entwined in both.
But, let me ask anyway!

Come back with the memories of this life.
I want to ask you about the time you finally turned back and walked away.
Did you reach where you wanted to go?
Or did you wander in the wonder-less spectacle of the world that you created?

I want to hear how did the new life finally treat you?
Was it really as novel?
I hope it was.
Hope it was not a newly coated version of the one you had been living thus far!
I have often seen those being offered!
Scratch the surface, and it's same old! same old!
I agree though familiarity has its appeal.

Come back when you have all the time of the world,
I have so much to tell you!

I have to tell you how something termed as filial love,
Turned into romantic love.
No. I will not call it incest.
I don't believe in judging love.
It is one of those truths and untruths till you see what suits you better.
I have seen it.
You will say, you lived it!
So what! Listen to the viewer's perspective too.
You have time now.
And I had the advantage of being in the balcony seat.

Come back when no one is looking for you!
I have to tell you how each road of my known city changed,
So much so that I started avoiding them.
Have I already told that?
Never mind!
Its another life.
That kind of repetition is allowed.

The kind that is not allowed are the ones that resemble rotational motion.
The kind that makes people think its a story akin to waves and the sea shore.
However far one may go, one would definitely return!
Those repetitions create illusion of certainty.
And I have to tell you about uncertainty now.
And how it plays out.
And how words said to one repeated to another, still sound as sweet.

You would say, "I know!!
I have lived it!"
I would say, "So what!
You can listen to the witness too.
You finally have time!"





Wednesday, May 30, 2018

গাছ আর পাখির উল্টো গল্প ~


Image courtesy: Google images
বছর ঘুরলে কত কি বদলায়
গাছের ডানা গজায়
পাখির শিকড়!
অথচ গাছের সময় নেওয়ার কথা ছিল,
অন্তত একশ' বছর,
পাখির আবার সময় কি!
মেরে কেটে বছর দুই
পরিযায়ী পাখিরা কতোই বা বাঁচে!

বছর ঘুরলে সব হিসেব উল্টো হয়ে যায়।
গাছের মাটিতে ছড়িয়ে যাবার কথা ছিল
কিন্তু, শিকড় চলে গেলো পাখির ভিতর!
গাছ মনে রাখতে পারলো না, সে গাছ!
আর পাখির বুকে একশ' বছরের স্বপ্ন ছড়িয়ে দিলো শিকড়!
নিজের আয়ু ভুলে গেলো সে।
মাটি এদিকে গাছকে মুক্ত করে দিলো,
জড়িয়ে ধরলো পাখিকে।
বললো, "থেকে যাও এখানে!
আমার একা লাগছে!"

গাছের আর থাকা হলো না।
পাখির আর ওড়া হলো না!

Tuesday, March 27, 2018

সুফী সরমদ কাসানী : দিল্লির হাল্লাজ



সিন্ধ দেশের থাট্টা এক ঐতিহাসিক জায়গা। এই প্রাচীন বন্দর শহরই সিন্ধীদের ইষ্টদেবতা ঝুলেলাল এর জন্মস্থান।  এই শহরে,  ১৬১৪ সনে এসে পৌঁছান আর্মেনীয় বাবা-মা এর সন্তান, জন্মসূত্রে ইহুদী, ব্যবসায়ী সরমদ। আর তারও বছর পরে আসেন শাহজাদা খুররাম (পরে বাদশাহ শাহজাহান) শরণ নিতে, তাঁর পিতা জাহাঙ্গীর এর হাত থেকে বাঁচতে। কালে আওরংজেবও আসেন সিন্ধের শাসনকর্তা হিসেবে।  থাট্টাই কি জড়িয়ে দিয়েছিলো এঁদের ভাগ্য একসাথে? কে জানে!   

থাট্টাতে সরমদ এসেছিলেন ব্যবসা করতে আর এসেই এক অদ্ভুত সুন্দর দেখতে যুবক অভয়চন্দকে দেখে তাঁর প্রেমে পাগল হয়ে যান। কেউ বলে অভয়চন্দকে তিনি পড়াতে গেছিলেন তাঁদের বাড়ি।  কেউ  বলে তিনি গান শুনেছিলেন অভয়চন্দ এর।  কি করে তাঁদের দুই চক্ষুর মিলন হয়েছিল কেউ ঠিক করে না জানলেও, তাঁদের সাক্ষাৎ দুজনের জীবনকেই চিরতরে বদলে দেয়।     ইতিমধ্যে সরমদ এর কবিতার খ্যাতি দিকে দিকে ছড়িয়ে পড়েছে কিন্তু অভয়চন্দকে ছাড়া তাঁর সবই বৃথা মনে হয়।  দুজনে একসাথে থাকতে শুরু করেন কিন্তু অভয়চন্দ এর পরিবারের লোকজনের এতে আপত্তি ছিল।  অভয়চন্দ এর বাবা তাঁকে জোর করে দূরে নিয়ে যান।  না সরমদ এর ভালোবাসা সাধারণ ছিল, না বিরহ।  তিনি অভয়চন্দের বিচ্ছেদে পার্থিব সবকিছুর সাথে বিচ্ছেদ করে ফেলেন। হয়ত ভেবে নেন, অভয়চন্দ না কাছে এলে, আর কিছুকেই তিনি কাছে আসতে দিতে পারবেন না।  জামা-কাপড়ও আর তাঁর দেহের কাছাকাছি আসে না।  সরমদ, যিনি বিভিন্ন ভাষার পন্ডিত, ধর্মজ্ঞ, কবি, তিনি রাস্তায় রাস্তায় উন্মাদের মতো ঘুরে বেড়ান।  অভয়চন্দ এর বাবাকে এই দৃশ্য গভীরভাবে আঘাত করে এবং তিনি অভয়চন্দকে অনুমতি দেন সরমদ এর সঙ্গে চলে যাবার।  আর ঠিক সেই মিলন এর মুহূর্ত থেকে সারা জীবনে একবারও  সরমদ, তাঁর প্রাণের আরাম, মনের আনন্দ, আত্মার শান্তি অভয়চন্দ এর দূরে থাকেন নি।  জীবনের শেষদিন পর্যন্ত না। 

আমি এই একবিংশ শতকের নাগরিক, অভয়চন্দ এর বাবার চরণে শতকোটি প্রণাম জানাই। তিনি ভালোবাসাকে, জাতি, ধর্ম, লিঙ্গের উর্ধে উঠে ভালোবাসার সম্মান দিতে পেরেছিলেন।  সেই ঘটনার ৪০০ বছর পেরিয়ে গেছে।  আজও আমরা অভয়চন্দ এর বাবার মানসিক উচ্চতাকে ছুঁতে পারিনি। 

সরমদ জন্মেছিলেন ইরান এর কাসান শহরে, তাই তিনি সরমদ কাসানী।  জিসাস অফ নাজারেথ এর মতো সরমদ অফ কাসান।  দুজনেই জন্মসূত্রে ইহুদি।  

ভারতবর্ষ থেকে আর্মেনিয়ার দূরত্ব কতটা? কে আন্দাজ করার চেষ্টা করবেন? হ্যাঁ, আর্মেনিয়া হলো সেই দেশটা যেটা আজারবাইজান এর সীমান্তের বেশ কাছাকাছি অবস্থিত  আজারবাইজান এর নাম শোনেন নি? আচ্ছা, তুর্কি দেশটা তো নিশ্চয় জানেন  আর্মেনিয়া তার পশ্চিম সীমার কাছের দেশ  খুবই প্রাচীন দেশ আর্মেনিয়া  খ্রিষ্টপূর্ব ৬০১ সনে এর নামকরন হয় এবং সেই নাম এখনো চলছে  

যে সব বাঙালি সহজপাঠ পড়েছেন তাঁরা অবশ্য বেশ কম বয়েসেই দেশটার নাম শুনে ফেলেন, কারণ রবি ঠাকুর "আর্মেনিয়ার গীর্জার ঘড়িতে ঢং ঢং করে" 'টা বাজলো তা পাঠককে জানানোর সাথে সাথে দেশের নামটাও জানিয়ে দেন।  আর সেই সঙ্গে জানিয়ে দেন যে ওই দেশটার লোক কলকাতায় আছে! আর্মেনিয়ার গির্জার মতোসরমদ নামের এই আর্মেনিয়ান মানুষটিরও যোগাযোগ আছে রবি ঠাকুরর সাথে!
১৯৫০ সালেঅর্থাৎ ইনি মারা যাওয়ার ২৯০ বছর পর যখন ইংরেজী ভাষায় প্রথম বার এঁর রুবাইয়াৎ প্রকাশ পায়সেটি ছাপা হয় রবি ঠাকুরের শান্তিনিকেতন থেকে। কৌতূহল জাগিয়ে গুরুদেব খালাস! এদিকে আমি ভেবেই পাই না এতদূর থেকে মানুষ হেঁটে হেঁটে বা ঘোড়ায় চড়ে কত বছরে পৌঁছাতো! একবার খোঁজ লাগিয়ে (পড়ুন, গুগল করে) দেখেছিলাম, আমাদের দেশে, ৭৮০ সন থেকে আর্মেনিয়ানরা নিয়মিত ব্যবসা করতে আসছেন স্থলপথে, যদিও গ্রিক সাহিত্যে ভারতের সাথে আর্মেনিয়ার ব্যবসা বাণিজ্যের কথা বলা আছে ৪৫০-৩৫৫ খ্রিষ্টপূর্ব এর সময়কালেও আর্মেনিয়ার সাথে ভারতের দূরত্ব ৪০০০ কিলোমিটার এর কিছু কম। ভাস্কো দা গামার ভারত আগমন এর ৭০০ বছর আগেই  টমাস কানা নামের এক ব্যবসায়ী কেরালার সঙ্গে নিয়মিত ব্যবসা বাণিজ্য করতে শুরু করে দেন। 

এটা অবশ্য আর্মেনিয়ার সাথে ভারতের সম্পর্কের গল্প নয়।  এটা এক আর্মেনিয়ান এক ভারতীয়র ভালোবাসার গল্প।  আর সেই আর্মেনিয়ান এর নাম সরমদ।  তিনি এই রকমই এক ব্যবসায়ী ছিলেন, যিনি হাজার তিনেক কিঃমিঃ পেরিয়ে তখনকার ভারতে (এখনকার পাকিস্তান ) এসেছিলেন   

সরমদ এর জন্ম ১৫৯০ সালে হয় নাকি ১৬১৮ তে সে নিয়ে কিছু মতবিরোধ আছে আমি ১৫৯০ বলবো  কারণ ১৬৬০/৬১ সালে যখন সরমদ এর মৃত্যদণ্ড হয় তখন তাঁর বয়স ছিল ৭০ প্রায়।  এই মৃত্যু এমনই ঘটনা যা সরমদকে "দ্বিতীয় হাল্লাজ" বা হাল্লাজ থানি উপাধি প্রদান করে।হ্যাঁ, সেই মানসুর আল হাল্লাজ, যিনি "অন অল হক " (আমিই পরমসত্য! আমিই ঈশ্বর!) বলেছিলেন বলে তাঁকে মৃত্যুদণ্ড দেওয়া হয়।   হাল্লাজ  এর সাথে তুলনা কেন? দুজনেরই ধর্মের ধারক বাহকদের নির্দেশে মৃত্যু হয়েছিল বলে? নাকি দুজনেই তাঁদের বিচারকর্তাদের থেকে ইতিহাসের পাতায়  অনেক উঁচুতে স্থান পেয়েছেন বলে? আমি তা বলার কে? আমি তো খালি তাঁর অত্যাশ্চর্য জীবনের কাহিনী বলতে বসেছি এখানে।  

সিন্ধ এর থাট্টাতে এসে পৌঁছানোর আগেই ইহুদী সরমদ, ইসলাম ধর্ম গ্রহণ করেন। আর তারও আগে ইহুদী ধর্মের সমস্ত "তোরা" মুখস্থ করে ফেলেন এবং ইহুদী রাবাই এর সমকক্ষ সম্মান পান অর্থাৎ ২৪ বছর বয়েসের আগেই সরমদ দু-দুটি ধর্মের বিষয়ে অগাধ পড়াশোনা করেন।  বলা হয়, সরমদ শেষ জীবনে হিন্দু ধর্ম গ্রহণ করেন বা হিন্দু ধর্মের অনুরাগী হয়ে ওঠেন।   সমস্ত ধর্মেই সরমদ খুঁত পেয়েছিলেন।  কোনো ধর্মই সরমদকে সম্পূর্ণভাবে ছুঁতে পারেনি।

অভয়চন্দ এর পরিবার তাঁদের অনুমতি দেবার পর, অভয়চন্দ আর সরমদ এর পর থাট্টা ছেড়ে বেরিয়ে পড়েন একসাথে।  লাহোর প্রথমে, তারপর দক্ষিণ (হায়দরাবাদ এলাকা), আর শেষে দিল্লি।  ৩০০ রুবাই লেখেন সরমদ।  রুবাইতে তিনি ওমর খাইয়াম এর ধরণ অনুসরণ করতেন আর গজল হাফিজ সিরাজীর।  লাহোরে থাকাকালীন, সরমদ বহু কবিতা রচনা করেন, সেগুলি অভয়চন্দ তাঁর সুন্দর গলায় গেয়ে শোনাতেন।  অভয়চন্দ সরমদ দেশে দেশে ঘুরে বেড়াবার সময়কার বেশ কিছু আঁকা ছবি পাওয়া যায় তাঁদের একসাথে।  এক নগ্ন ফকির এর সাথে এক অপূর্ব সুন্দর যুবকের ছবি! আর এই অদ্ভুত জুটি এক অদ্ভুত সময়ে দিল্লি এসে পৌঁছান।  দিল্লিতে তখন শাহজাহান বাদশাহর সূর্য প্রায় অস্তাচলে  ছেলেদের মধ্যে বিরোধ আর চাপা থাকছে না।  আবার ঠিক এই সময়ই রাজপুত্র দারাহ সিকোহ "মজমা উল বাহরাইন" (দুই সমুদ্রের মিলন) লিখছেন, বেদ আর সুফী দর্শন এর মধ্যে মিল দেখাতে।

সরমদ এর খ্যাতি খুব তাড়াতাড়ি এই জ্ঞান-পিপাসু রাজপুত্রের কানে পৌঁছে যায় এবং রাজপ্রাসাদে আসা যাওয়া শুরু হয় এই সুফী ফকির এর। শোনা যায়, শুধু রাজপ্রাসাদে তর্ক আলোচনা করতে ঢোকার সময় তিনি কোমরে ছোট একফালি কাপড় জড়িয়ে নিতেন।  দারাহ এঁকে নিজের গুরু শিক্ষক বলতেন।  সরমদ এর ভবিষ্যৎবাণী খুব সঠিক বলে মনে করতো দিল্লির মানুষজন, শুধু দারাহ জয় সম্পর্কে করা ভবিষ্যৎবাণী ফলে নি। 

ইতিহাস পড়া আমরা জানি যে আওরংজেবই জেতেন সেই সামুগড় এর যুদ্ধ এবং পরে পরাজিত দারাহকে বন্দী, অপমানিত, হত্যা করা হয়। যে ছোটভাই মুরাদ বক্স এর সাহায্যে আওরংজেব এই যুদ্ধ যেতেন, তাকেও বছরের মধ্যেই মেরে ফেলেন আওরংজেব। এমতাবস্থায় সমস্ত শুভান্যুধায়ীরা সরমদকে দিল্লি ছেড়ে চলে যেতে অনুরোধ করেন। তাঁরা জানতেন, আওরংজেব কখনোই এই নগ্ন ফকিরকে দিল্লিতে সহ্য করবেন না। দারাহ সমস্ত চিহ্ন মেটাতে তিনি বদ্ধ পরিকর।  আর সরমদ এর পাগলের মতো "লা ইলাহা" আওড়াতে আওড়াতে দিল্লীর রাস্তায় রাস্তায় ঘুরে বেড়ানো তাঁকে এক অমূল্য সুযোগ এনে দেয়। 

এর আগে অবশ্য আরেক উল্লেখযোগ্য ঘটনা ঘটে।  আওরংজেব একদিন লাল কেল্লা থেকে জামা মসজিদ যাচ্ছিলেন নামাজ পড়তে তখনতিনি রাস্তায় দেখতে পান সরমদ নগ্ন অবস্থায় বসে আছেন।  আওরংজেব তাঁকে বলেন, আপনার লজ্জা করে না? শরিয়া নগ্নতা ঢেকে রাখতে বলে! জোরে হেসে ওঠেন সরমদ ! বলেন, "আহা! তোর লজ্জা লাগছে বুঝি? তাহলে ওই যে কম্বল পড়ে আছে মাটিতে, দে না উঠিয়ে আমার গায়ে..."  আওরংজে এগিয়ে সেই কম্বল ওঠাতেই তার ভেতর থেকে গড়িয়ে আসে তাঁর ভাইদের কাটা মুণ্ড! যেন সদ্য শিরোচ্ছেদ হয়েছে! চমকে সরে যান বাদশাহ! আরও জোরে হেসে ওঠেন সরমদ! "কার লজ্জা ঢাকা উচিত রে? তোর না আমার?" এমন অপমান মেনে নেবার লোক আওরংজেব নন, অথচ সরমদকে স্পর্শ করে তিনি জনতাকেও আর চটাতে চান না।  তিনি ধর্মগুরুদের কোর্ট বল ঠেললেন।  

ধর্মগুরুরা এমনিতেই চটে ছিলেন! কানাঘুষোয় শোনা যাচ্ছে, সরমদ আজকাল রামভক্ত হিন্দু হয়েছেন! ইহুদী থেকে মুসলমান আবার মুসলমান থেকে হিন্দু!! আর সেই সঙ্গে সরমদ এর সেই অদ্ভুত কীর্তি! "লা ইলাহা" বলতে বলতে ঘুরে বেড়ান সারা দিল্লি! মুসলমান হতে গেলে কলমা পড়তে হয়, "লা ইলাহা ইল্লালাহ / মুহাম্মদুর রসূলুল্লাহ" অর্থাৎ "নেই কোনো ভগবান আল্লাহ ব্যতীত এবং মুহাম্মদ তাঁর রসূল/দূত"! "লা ইলাহা" তে থেমে গেলে দাঁড়ায় "নেই কোনো ভগবান"! তো নাস্তিক এর কথাডাকা হোক তবে সরমদকে বিচারসভায়! কাজী বলেন, "কই হে সরমদ পুরো কলমা পড়ো!" , সরমাদ বলেন, "কি করে পড়ি? এখনো যে না থেকেই বেরোতে পারিনি! হ্যাঁ অবধি পৌঁছাবো, তবে তো বলবো বাকিটা! হৃদয় যদি না পড়তে পারে, মুখ দিয়ে পড়ে লাভ কি?" সরমদকে কলমা পড়াতে ধরে নিয়ে আসা হলো অভয়চন্দকে।  তাঁর ঘাড়ে পিঠে বেতের বাড়ি পড়ে! সব দাগ ফুটে ওঠে সরমদ এর গায়ে। ব্যাথায় ছটফট করেন কিন্তু পারেন না "লা ইলাহা" থেকে এগোতে। সরমদের শিরোচ্ছেদের হুকুম দেওয়া হয়।
  
১৬৭০ সন। জামা মসজিদ এর সিঁড়িতে শিরোচ্ছেদ হবে সরমদ এর। খোলা তলোয়ার হাতে সৈনিককে তাঁর দিকে এগিয়ে আসতে দেখে সরমদ বলে উঠলেন
رسيد يار عريان تيغ اين دم ** به ھر رنگی که آيی تورا ميشناسم 
“এসেছো তুমি খোলা তলোয়ার হাতে প্রিয়তম 
যে কোনো বেশে চিনে নেবো তোমায় 
তুমিই চির সুন্দরতম....”

A painting of Sarmad by Sadequain
সরমদ এর শিরোচ্ছেদ হবার পরে ফকির নিজের মাথা নিজের হাতে তুলে নেন এবং নটরাজ এর মতোই নেচে ওঠেন এক অদ্ভুত কৌতুকে! এই দৃশ্যের বর্ণনা বহু শিল্পীকে বহু বার অনুপ্রাণিত করেছে।  এই উপমহাদেশ এর নামকরা আঁকিয়ে সাদিকেন আহমদ নাকভি তাঁর বহু পেইন্টিং এই দৃশ্য নানা ভাবে বর্ণনা করেছেন।  

সরমদ শহীদ হয়ে গেলেন। কিন্তু, অভয়চন্দ এর কি হলো? তাঁর খবর কে জানে না। "দিলবালো কি দিল্লি" ভালোবাসার প্রতি বিমুখ ছিল না, কিন্তু।  বিভিন্ন ভালোবাসার মানুষদের দিল্লি পাশাপাশি শুয়ে থাকতে দিয়েছে মৃত্যুর পর।  কিন্তু অভয়চন্দ এর ক্ষেত্রে তা হলো না।  সরমদ এর কবর এর পাশে অভয় এর স্থান হয় নি।  কেন? অভয় কি চিতায় যেতে চেয়েছিলেন? অভয় কি সরমদ এর দুঃখে পাগল হয়ে দিল্লি ছেড়ে চলে গেছিলেন? কে জানে না সে কথা।  সরমদের  ভালোবাসায় অমর অভয়, এর পর যেন হাওয়ায় মিলিয়ে গেলেন... যে পৃথিবীতে সরমদ নেই, সেই পৃথিবীতে অভয় এর নামও আর শোনা যায় নি।  
N.B. I want to acknowledge the work named Sarmad Kasani. Life and Death by Natalia Prigarina. I have borrowed heavily from her work. Although her work is much more on the work of Sarmad.  I also read pieces by Yoginder Sikand and Mayank Austen Soofi on this amazing Faqir.
Sohail Hashmi was the man behind my interest in Sarmad. I heard about Sarmad in one of his walks a few years ago. Sohail's contribution to preserving Delhi's history and heritage is invaluable! 

Who is Fumbling on Forgiveness After All?

It has been a long time since I have been musing on this topic. I wanted to write on it quite a few times but I, even I, fear being misunder...