Monday, March 15, 2021

यादों का शहर

 .........................................

एक दिन कोई आ कर कहेगा,

"तुम्हारी बैठक में एक खटिया रखने की जगह है।
मैं आज से वहीं अपनी खटिया लगाकर सोऊंगा,
मुझे पेड़ के नीचे सोना अब और अच्छा नहीं लगता!"

एक दिन कोई आ कर कहेगा,
"अब से तुम्हारी थाली में से मैं तीन मुट्ठी खाना उठा लिया करूँगा।
क्यूंकि मेरी कोई थाली ही नहीं है!!
मेरा भूखा पेट जाने कब से जल रहा है!
निरंतर!
उक्ता गया हूँ मैं उससे!
मुझे और अच्छा नहीं लगता!"

बरामदे के नीचे से धूल में सने तीन बच्चे दौड़ कर आएंगे और बोलेंगे
"सुनो, हमें बासी रोटी नहीं चाहिए, पांच पैसे भी नहीं,
हमे नीली हाफ-पैंट और सफ़ेद शर्ट पहना दो!
बाल बना दो
हल्के से हमारे गाल सहलाकर बोलो, 'ध्यान से......!'
हम भी स्कूल जाऐंगे!"

एक दिन कोयला-खदान के अँधेरे से उठकर आएगा,
एक काला-सा इंसान
और हैरान हो कर कहेगा,
"अरे! मेरे लिए कोई शोकसभा नहीं रखी तुमने?

डायनामाइट लेकर मैं गया था गहरे पाताल में।
मैं वापिस नही आया, पर तुम्हारे लिए आग तो आई है न!
फिर मेरे नाम से कोई रास्ता क्यों नहीं है तुम्हारे शहर में?
ये रास्ते किसके नाम से है?
इन्हें तो मैं नही जानता !"

एक दिन किसी धान के खेत से कीचड़ में सना एक इंसान खड़ा होगा
और अपने से बहुत ऊंचा होकर, ऊंची आवाज़ में बोलेगा,
"तुम, जो कभी नहीं उतरे कीचड़-पानी में
तुमने कभी नहीं सुनी मिटटी में कोई आवाज़!
तुम, जिसको पता भी नहीं कितना पसीना-खून-चिंता मिलाने पर
हरी घास, सुनहरी फसल में तब्दील होती है
और तुम ही फसल ले कर राहजनी करते हो
और भूख से बिल्खते रह जाते है मेरे बच्चे!
तुम्हे शर्म नहीं आती?"
"आ रहा हूँ मैं..... "

P.C. Sebastiao Salgado

The Original

স্মৃতির শহর সুনীল গঙ্গোপাধ্যায়
একদিন কেউ এসে বলবে তোমার বসবার ঘরে একটা চৌকি পাতার জায়গা আছে আমি ওইখানে আমার খাটিয়া এনে শোব আমার গাছতলা আর ভাল্লাগে না ! একদিন কেউ এসে বলবে তোমার ভাতের থালা থেকে আমি তিন গ্রাস তুলে নেব কারণ আমার কোন থালাই নেই আমার অনাহার একঘেয়েমির মত ধিকধিক করে জ্বলছে আর আমার ভাল্লাগে না ! গাড়ি বারান্দার তলা থেকে ধুলো মাখা তিনটে বাচ্চা ছুটে এসে বলবে ওগো, আমরা বাসি রুটি চাই না, পাঁচ নয়া চাই না আমাদের ছাই রঙের হাফ প্যান্ট আর সাদা শার্ট পরিয়ে চুল আঁচড়ে দাও আমাদের গাল টিপে দিয়ে বলো,সাবধানে – আমরাও ইস্কুলে যাব ! একদিন কয়লাখনির অন্ধকার থেকে উঠে আসবে একজন কালো রঙের মানুষ সে অবাক হয়ে বলবে একি, আমার জন্য শোকসভা নেই কেন? ডিনামাইট নিয়ে আমি গিয়েছিলুম গভীর থেকে আরও গভীরে আমি ফিরিনি, কিন্তু তোমাদের জন্য আগুন এসেছে আমার নামে তোমরা কেন নাম রাখো নি শহরের রাস্তার তবে এসব রাস্তা কাদের নামে, তাদের তো চিনি না। একদিন ধান খেতে কাদা-জল মেখে দাঁড়ানো একজন মানুষ নিজের চেয়ে আরো অনেক লম্বা হয়ে উঠে গলা তুলে বলবে, তোমরা যারা কোনদিন কাদা-জল মাখো নি মাটিতে শোনোনি কোন আওয়াজ জানো না ঘাম-রক্ত-উৎকন্ঠায় সবুজ হয় সোনালি সেই তোমরাই শস্য নিয়ে রাহাজানি কর আর আমার সন্তানেরা থাকে উপবাসী, তোমাদের লজ্জা করে না? আমি আসছি... ।

2 comments:

  1. Brilliant! You must get the compilation published. Suckers for poetry, people like me who wish they knew a hundred languages to relish literature in its varied hues will totally lap it up. This is absolutely beautiful. Thank you!

    ReplyDelete

Who is Fumbling on Forgiveness After All?

It has been a long time since I have been musing on this topic. I wanted to write on it quite a few times but I, even I, fear being misunder...