Wednesday, August 19, 2020

सज़ा

 सज़ा तो मेरी बनती है!

तुम्हें तुम्हारे सपनों से जो मिलवाया
अंधेरे में दुबक कर बैठे थे वो, 
मैं छू छू कर जाने कैसे पहुँच गई वहां!
तुम्हारे अँधेरे घर में घुस आई मैं,
सज़ा तो मेरी बनती है!

तुमसे वो सारी बातें सुन ली, 
जो नहीं सुनी थी किसी ने कभी
जिनको सुने अरसा हो गया था तुम्हें भी! 


और पूछ लिए सवाल.... 
मुश्किल तो हो ही गया न फिर!!
तुम्हारे इमारत के मुहार गिरने लगे!
सज़ा तो बनती थी मेरी I
सो मिली!


अब मेरी बातें जो सुनता है 

वो हर घंटे के पैसे लेता है 
बड़ा अजीब है वो इंसान!
मेरे झूठ, मेरे फरेब मुझ ही को बताता रहता है।


सज़ायाफ़्ता मैं, रोज़ सोचती हूँ, 
उसे क्या सज़ा दूँ ?

7 comments:

  1. लफ़्ज़ों में बड़ी तपिश है,हर किसी की यादों को सुलगा देती हैं

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    1. आपकी सुलगाई? बस फिर क्या? मेरा काम हो गया!

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  2. दिल को छू लेने वाले शब्द,गहराई से भरा हुआ है हर एक लफ्ज़

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  3. मर्मस्पर्शी कविता अनायास उद्वेलित करती है, सजा तो बनती है
    उन सब भावुक लोगों की जो दुसरो की भावनाओं को अपने से ज्यादा अहमियत देते हैं।
    कोमल भावना हमेशा सजायफ्ता होती हैं अनुभवों से ये कह सकती हूँ,लेकिन
    एक बात निश्चय के साथ कहूँगी की वास्तव में सजा अंधेरे को मिलती है जो प्रकाश से महरूम होता है।

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    1. बहुत उम्दा कहा आपने! किसकी सज़ा किसको मिली, किसको असल मे सज़ा मिली क्या पता! सज़ा को सज़ा समझ पाने तक भी कई बार ज़िंदगी बीत जाती है ।

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  4. This one is beautiful, and beautifully penned! :)

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