Friday, September 11, 2020

ये मस्तानी रात!

 साला ... आज चढ़ा ली है मैंने बहुत!!

रात के साथ याराना पुराना है मेरा।  

कंदुपट्टी की किसी रंडी की आँखों 

के सुरमे का इशारा है,

इस मस्तानी रात के पूरे बदन में!

 पैर हलके से लगते है

इधर-उधर पड़ते हैं

गहरे काले अब्र* के - 

सुनसान महल के भीतर चले जा रहे हो 

जैसे!

ज़मीन ने पर बांध रखा हैं मेरे पाँव - -


अबे कौन है तू जिन्न का पूत सामने खड़ा?

हो जा किनार!

दिख नहीं रहा तुझे रास्ते में उतरा हूँ मैं?

सटक जा तू!

नहीं तो पिछवाड़े पर लात पड़ेगी!

पड़ेगा जोर का चांटा गालों पर!!

शरीर के आंगन में आज चिराग जल रहे हैं बेशुमार!

 

मुझे कोई कहता है "मोइफा का बेटा",

कोई "जुम्मन का बाप", 

"हुस्ना बानो का शौहर"

कोई कहता है "सुबराती मिस्त्री"!

बेशरम गली की चंपाचूमकर कहती है,

"तुम इस दिल के सौदागर हो मेरे!

मेरे जान के हक़दार!"

 

अपने गले में किसका गीत सुनता हूँ पर ठंडे आंसुओं से भरा?

असल में कौन हूँ मैंकहाँ से आया हूँ इस दग़ाबाज़ दुनिया में?

और जाऊंगा भी कहाँ आख़िर में उस्ताद?

चूड़ीहट्टाचान खां का पुल, चकबाज़ार,

आशक जमादार लेनबोंसाल

चाहे कोई भी जगह हो मकान,

आदमी मैं वो एक ही हूँगोल सा मुँहसर पर बाबरी

ठुड्डी पर ज़रा सी दाढ़ीगाल पर दाग,

जैसे अठन्नी हो एक पुराने ज़माने की!

 

अभी मेरी अपनी हथेली तक बेगानी लगती है मुझे!मेरा ख़ुद का जिगर भी लगता है

जैसे होगा किसी और ही इंसान का!

शरीर के अंदर ऐसे लोटता-पोटतापलटी खाता है

जैसे ज़रा भी चैन नहीं है इसको!


दिल जैसे जिंजीरा" की जंगली ज़मीनया वीरान आंगन कोई!

मेरी जान पर रेंग रहा हो जैसे कोई डरा हुआ ज़हरीला बिच्छू!

और ऐसी रातों में मुझे ख़ुद से भी डर लगता है

लगता है जैसे मैं ख़ुद भी उठ कर आया हूँ बीच रात

ज़मीन के बहुत नीचे सेबहुत ज़माने बाद!

 


ये किसकी मैय्यत जा रही है अंधेरी रात में?

बीवी बच्चा छोड़ कौन पड़ा है

अकेला लकड़ी की खाट पर बेफ़िकर

कोई नवाब हो जैसे - 

अबे समझे के नहीं तुम ससुर के नाती!

अभी अज़राईल**  कर खड़ा हो जाए तो

तुम भी  सीधा जा कर घुस जाएगा किसी अंधेरी क़ब्र में!

तेेेरा दिमाग़ भी  सुबराती मियां, मेरी जेब की  तरह ही है!

बिलकुल सफा़-चट!!

 

पर अब भी ज़िंदा हूँअभी भी नाक में आती है

गुलाब की ख़ुशबूमठ्ठे की तरह चांदनी खिलती है जब,

अजीब सा खिल उठता हूँ मैं।

ख़्वाबों की कोई ख़ूबसूरत लड़की,

गहरा समुंदरसुन्दर सी नावऔर आसमानी परियों की बारात

खिड़की से आती हुई धूपझूम क़व्वाली की तानेंचिड़ियाँ -

उदास बनाता है यादों को!

हाँअभी भी ज़िंदा हूँ मैं,

और मौत के पिछवाड़े में लात लगाकर

मौत तक सही सलामत ज़िंदा रहना चाहता हूँ!

 

ये सब बड़ी बड़ी कोठीरास्ते का किनारामस्जिद की मिनार

नल का मुँहबेगानी मैय्यतफ़जर के वक़्त चिड़ियों की आवाज़

अंधे फ़कीर की लाठी की आवाज़जैसे ज़िक्र^

सब कुछ, अभी सब कुछ ख़्वाब सा लगता है!

और ये बंदा?

ये बंदा भी ख़्वाब?


शामसुर रहमान 

Translation: नयना 


*अब्र = बादल 

**अज़राईल= The Angel of Death, who takes the souls from bodies when people die.

"जिंजीरा: A place in Bangladesh

^ज़िक्र: भक्तिपूर्ण कृत्य हैं, मुख्य रूप से सूफ़ी इस्लाम में, जिसमें छोटे वाक्यांशों या प्रार्थनाओं को मन में या जोर से बार-बार चुपचाप सुनाया जाता है। इसे प्रार्थना माला के सेट पर या हाथ की उंगलियों के माध्यम से गिना जा सकता है।

P.C. Alamy website


Thursday, September 3, 2020

अभी भी खड़ा हूँ, यह एक तरह का घमण्ड है मेरा !

 अभी भी खड़ा हूँ, यह एक तरह का घमण्ड है मेरा !

सिर चक्कर खा रहा है .. लगातार,
पैरों तले ज़मीन सारा दिन जैसे खिसक रही हो।
खाली क़ब्रिस्तान के अलावा अभी
और कुछ भी नहीं दिख रहा है मुझे -
तब भी खड़ा हूँ सीधा -
तेज़ हवा में चेहरा स्थिर टिका-कर!

जलवायु विभाग की बहुत ज़रूरी कोई उद्घोषणा की तरह
दसों दिशाएँ एक साथ बोल रही हैं -
"तुम्हारी हड्डियों में घास उगती जा रही है,
सीने में बर्फ़ जमा हो रही है -
बड़े अकेले होते जा रहे हो तुम!"

मेरे भूखण्ड से मुझे ही बेदख़ल करने को
जाने कितने लठैत आ रहे हैं
चारों दिशाओं से!
वे जल्दी में हैं -
मेरे सपने की सारी चल-अचल संपत्ति
कुर्की करनी है उन्हें !
कोई कोई बोली लगा रहा है चिल्लाकर!

लेकिन मैं किसी त्रस्त, पीड़ित किसान की तरह
अभी भी खड़ा हूँ अपनी कुटिया के छप्पर पर।
नहीं छोड़ रहा हूँ पानी में डूबा हुआ अपना ठिकाना!

मेरे ख़िलाफ़ खुशियाँ लगाती है पोस्टर निरंतर
हर दीवार पर
मेरे ख़िलाफ़ उम्मीदें बाँटते हैं इश्तिहार
हर गली मोहल्ले में -
मेरे ख़िलाफ़ शांति करती है सत्याग्रह!
मेरे अन्दर सड़ान ने
गाड़ लिया है अपनी हड्डी और खोपड़ी वाला
गहरा काला झंडा!

मेरे पिता ने इतनी व्यर्थ कोशिशों के शव
ढोए हैं तमाम उम्र कंधों पर
छल के माया-हिरण ने उनको इतना भटकाया है कि
आत्महत्या कर लेना चाहिए था उन्हें, लेकिन मेरे पिता
जैसे वह अश्वारोही हों जो जीन से फिसलने के बाद भी
घोड़े के गर्दन के बाल पकड़कर लटकता रहता है!
दाँत भींच कर! ज़िद्दी!

मेरी माँ ने इतना दुःख सहा है -
इतने सारे पुराने सपनों के चीथड़ों से गुदड़ी
सी है उन्होंने छुपकर,
देखे हैं इतने सारे लाल घोड़े फिरते हुए गली मोहल्ले में
इतनी बार सोते-जागते भूकंप से कांप उठी है वह -
भयंकर कोई दिमाग़ी बीमारी होना स्वाभाविक था,
लेकिन घोर पागलपन उनके बिलकुल करीब रहकर भी
उन्हें अपनी सामान्य स्थिति के नूरीले रेहल से
एक बूँद हटा नहीं पाया!
शायद इसीलिए, ऐसे कठिन समय में
मेरी अपनी धमनीयों में
किसी ज़िद्दी घोड़े के नाल की आवाज़ गूंजती रहती हैं!

किसी भी तरफ बढ़ा लूँ पैर
कभी भी कहीं नहीं पहुँच पाऊँगा मैं।
मैं वह खोजी-यात्री हूँ जिसके पैरों के निशान
मरुभूमि सहेज कर रख लेती है क्षण भर!
जिसका उदास कंकाल
पड़ा रहता है रेत पर, असहाय -
जबकि पास मे ही था मरुद्यान!

क्या कहूँ यह क्या हो जाता है कि
कभी रक्त की धार से
और कभी भरपूर चाँदनी से
भर जाता है दिल मेरा।
जिस तरफ भी हाथ बढ़ाऊँ
ज़मीन धँसने लगती है
मेरे फैले हुए हाथ खो जाते हैं
किसी अथाह गह्वर में !

लगता है मैं ख़ुद जैसे
किसी प्रागैतिहासिक विशालकाय
जानवर की पीठ पर
अकेला खड़ा हूँ; चारों तरफ़
बह रहे हैं लावा-स्त्रोत,
ज़मीन हिल रही है निरंतर!
प्रलय के काल में भी भगोड़ा नहीं
अपने भूभाग में एकरुख
अभी भी खड़ा हूँ मैं,
यह एक तरह का घमण्ड है मेरा!
~ शमसुर रहमान
Translated by: Nayana

Who is Fumbling on Forgiveness After All?

It has been a long time since I have been musing on this topic. I wanted to write on it quite a few times but I, even I, fear being misunder...