अभी भी खड़ा हूँ, यह एक तरह का घमण्ड है मेरा !
पैरों तले ज़मीन सारा दिन जैसे खिसक रही हो।
खाली क़ब्रिस्तान के अलावा अभी
और कुछ भी नहीं दिख रहा है मुझे -
तब भी खड़ा हूँ सीधा -
तेज़ हवा में चेहरा स्थिर टिका-कर!
जलवायु विभाग की बहुत ज़रूरी कोई उद्घोषणा की तरह
दसों दिशाएँ एक साथ बोल रही हैं -
"तुम्हारी हड्डियों में घास उगती जा रही है,
सीने में बर्फ़ जमा हो रही है -
बड़े अकेले होते जा रहे हो तुम!"
मेरे भूखण्ड से मुझे ही बेदख़ल करने को
जाने कितने लठैत आ रहे हैं
चारों दिशाओं से!
वे जल्दी में हैं -
मेरे सपने की सारी चल-अचल संपत्ति
कुर्की करनी है उन्हें !
कोई कोई बोली लगा रहा है चिल्लाकर!
लेकिन मैं किसी त्रस्त, पीड़ित किसान की तरह
अभी भी खड़ा हूँ अपनी कुटिया के छप्पर पर।
नहीं छोड़ रहा हूँ पानी में डूबा हुआ अपना ठिकाना!
मेरे ख़िलाफ़ खुशियाँ लगाती है पोस्टर निरंतर
हर दीवार पर
मेरे ख़िलाफ़ उम्मीदें बाँटते हैं इश्तिहार
हर गली मोहल्ले में -
मेरे ख़िलाफ़ शांति करती है सत्याग्रह!
मेरे अन्दर सड़ान ने
गाड़ लिया है अपनी हड्डी और खोपड़ी वाला
गहरा काला झंडा!
मेरे पिता ने इतनी व्यर्थ कोशिशों के शव
ढोए हैं तमाम उम्र कंधों पर
छल के माया-हिरण ने उनको इतना भटकाया है कि
आत्महत्या कर लेना चाहिए था उन्हें, लेकिन मेरे पिता
जैसे वह अश्वारोही हों जो जीन से फिसलने के बाद भी
घोड़े के गर्दन के बाल पकड़कर लटकता रहता है!
दाँत भींच कर! ज़िद्दी!
मेरी माँ ने इतना दुःख सहा है -
इतने सारे पुराने सपनों के चीथड़ों से गुदड़ी
सी है उन्होंने छुपकर,
देखे हैं इतने सारे लाल घोड़े फिरते हुए गली मोहल्ले में
इतनी बार सोते-जागते भूकंप से कांप उठी है वह -
भयंकर कोई दिमाग़ी बीमारी होना स्वाभाविक था,
लेकिन घोर पागलपन उनके बिलकुल करीब रहकर भी
उन्हें अपनी सामान्य स्थिति के नूरीले रेहल से
एक बूँद हटा नहीं पाया!
शायद इसीलिए, ऐसे कठिन समय में
मेरी अपनी धमनीयों में
किसी ज़िद्दी घोड़े के नाल की आवाज़ गूंजती रहती हैं!
किसी भी तरफ बढ़ा लूँ पैर
कभी भी कहीं नहीं पहुँच पाऊँगा मैं।
मैं वह खोजी-यात्री हूँ जिसके पैरों के निशान
मरुभूमि सहेज कर रख लेती है क्षण भर!
जिसका उदास कंकाल
पड़ा रहता है रेत पर, असहाय -
जबकि पास मे ही था मरुद्यान!
क्या कहूँ यह क्या हो जाता है कि
कभी रक्त की धार से
और कभी भरपूर चाँदनी से
भर जाता है दिल मेरा।
जिस तरफ भी हाथ बढ़ाऊँ
ज़मीन धँसने लगती है
मेरे फैले हुए हाथ खो जाते हैं
किसी अथाह गह्वर में !
लगता है मैं ख़ुद जैसे
किसी प्रागैतिहासिक विशालकाय
जानवर की पीठ पर
अकेला खड़ा हूँ; चारों तरफ़
बह रहे हैं लावा-स्त्रोत,
ज़मीन हिल रही है निरंतर!
प्रलय के काल में भी भगोड़ा नहीं
अपने भूभाग में एकरुख
अभी भी खड़ा हूँ मैं,
यह एक तरह का घमण्ड है मेरा!
खाली क़ब्रिस्तान के अलावा अभी
और कुछ भी नहीं दिख रहा है मुझे -
तब भी खड़ा हूँ सीधा -
तेज़ हवा में चेहरा स्थिर टिका-कर!
जलवायु विभाग की बहुत ज़रूरी कोई उद्घोषणा की तरह
दसों दिशाएँ एक साथ बोल रही हैं -
"तुम्हारी हड्डियों में घास उगती जा रही है,
सीने में बर्फ़ जमा हो रही है -
बड़े अकेले होते जा रहे हो तुम!"
मेरे भूखण्ड से मुझे ही बेदख़ल करने को
जाने कितने लठैत आ रहे हैं
चारों दिशाओं से!
वे जल्दी में हैं -
मेरे सपने की सारी चल-अचल संपत्ति
कुर्की करनी है उन्हें !
कोई कोई बोली लगा रहा है चिल्लाकर!
लेकिन मैं किसी त्रस्त, पीड़ित किसान की तरह
अभी भी खड़ा हूँ अपनी कुटिया के छप्पर पर।
नहीं छोड़ रहा हूँ पानी में डूबा हुआ अपना ठिकाना!
मेरे ख़िलाफ़ खुशियाँ लगाती है पोस्टर निरंतर
हर दीवार पर
मेरे ख़िलाफ़ उम्मीदें बाँटते हैं इश्तिहार
हर गली मोहल्ले में -
मेरे ख़िलाफ़ शांति करती है सत्याग्रह!
मेरे अन्दर सड़ान ने
गाड़ लिया है अपनी हड्डी और खोपड़ी वाला
गहरा काला झंडा!
मेरे पिता ने इतनी व्यर्थ कोशिशों के शव
ढोए हैं तमाम उम्र कंधों पर
छल के माया-हिरण ने उनको इतना भटकाया है कि
आत्महत्या कर लेना चाहिए था उन्हें, लेकिन मेरे पिता
जैसे वह अश्वारोही हों जो जीन से फिसलने के बाद भी
घोड़े के गर्दन के बाल पकड़कर लटकता रहता है!
दाँत भींच कर! ज़िद्दी!
मेरी माँ ने इतना दुःख सहा है -
इतने सारे पुराने सपनों के चीथड़ों से गुदड़ी
सी है उन्होंने छुपकर,
देखे हैं इतने सारे लाल घोड़े फिरते हुए गली मोहल्ले में
इतनी बार सोते-जागते भूकंप से कांप उठी है वह -
भयंकर कोई दिमाग़ी बीमारी होना स्वाभाविक था,
लेकिन घोर पागलपन उनके बिलकुल करीब रहकर भी
उन्हें अपनी सामान्य स्थिति के नूरीले रेहल से
एक बूँद हटा नहीं पाया!
शायद इसीलिए, ऐसे कठिन समय में
मेरी अपनी धमनीयों में
किसी ज़िद्दी घोड़े के नाल की आवाज़ गूंजती रहती हैं!
किसी भी तरफ बढ़ा लूँ पैर
कभी भी कहीं नहीं पहुँच पाऊँगा मैं।
मैं वह खोजी-यात्री हूँ जिसके पैरों के निशान
मरुभूमि सहेज कर रख लेती है क्षण भर!
जिसका उदास कंकाल
पड़ा रहता है रेत पर, असहाय -
जबकि पास मे ही था मरुद्यान!
क्या कहूँ यह क्या हो जाता है कि
कभी रक्त की धार से
और कभी भरपूर चाँदनी से
भर जाता है दिल मेरा।
जिस तरफ भी हाथ बढ़ाऊँ
ज़मीन धँसने लगती है
मेरे फैले हुए हाथ खो जाते हैं
किसी अथाह गह्वर में !
लगता है मैं ख़ुद जैसे
किसी प्रागैतिहासिक विशालकाय
जानवर की पीठ पर
अकेला खड़ा हूँ; चारों तरफ़
बह रहे हैं लावा-स्त्रोत,
ज़मीन हिल रही है निरंतर!
प्रलय के काल में भी भगोड़ा नहीं
अपने भूभाग में एकरुख
अभी भी खड़ा हूँ मैं,
यह एक तरह का घमण्ड है मेरा!
~ शमसुर रहमान
Translated by: Nayana
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