Wednesday, September 7, 2022

बंधुआ मज़दूरी



 जब भी मैं सोचती हूँ क्या तुम मुझे याद करते हो - 

साथ में ये ज़रूर सोचती हूँ, 

जिसे तुम याद करोगे  भी वो मैं तो थी ही नहीं।  


तुम जिससे मिले, जिससे बातें कीं

और जिससे प्यार का दावा किया 

वो मैं नहीं थी 

वो तुम्हारी बंधुआ मज़दूर थी।  

वो वाले, जिनके बारे में किसी हकीम ने हाल ही में कहा

"कोई बंधुआ नहीं होता!! 

सब अपने मर्ज़ी से खुद आते है!"

चलो! पता तो चला!  

उनसे पता चला भूख कुछ नही होती

पेट की भी नहीं 

प्यार की भी नहीं।  

सिर्फ़ लेबर प्रोब्लेम्स होते हैं

सिर्फ़ समझ का फेर 

किस काम के बदले क्या मिलेगा और कब तक 

तुम्हारी समझ अलग और मेरी समझ अलग

पर काम तय था।  

काम एक तरफ़ा था।  

मेहनत एक तरफ़ा थी।

ज़िम्मेदारी भी एक तरफ़ा थी।  

इंटों के ढेर के नीचे दबी लाश 

अपने ठन्डे होते हुए बदन और ठंडे पड़ते दिल लिए जानती थी 

ज़िम्मेदारी सिर्फ़ एक की ही थी।  


और हकीमसा'ब भी ठीक यही जानते थे।

Tuesday, June 21, 2022

ব্যস এইটুকুই -

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এলিসিও দিয়েগো 

অনুবাদ: নয়না 


কবিতা খুব বেশী কিছু না 

যেন কোনো পুরোনো উনোনের পাশে বসে 

আলো-আঁধারি কোনো কথোপকথন, যখন 

সবাই ফিরে গেছে, আর বন্ধ দরজার বাইরে খস খস শব্দ করে ডাকছে

ঘন জঙ্গল; হ্যাঁ, সেইই কবিতা।  


কবিতা কিছু শব্দ ব'ই তো নয়

যাদের ভালোবেসেছে কেও, আর বদলে গেছে

যাদের অবস্থান সময়ের সাথে, তাই এখন তারা 

শুধুই কোনো কালির মোটা দাগ,

নামহীন কোন আশার মতো;  


কবিতা খুশীর থেকে বেশী কিছু নয় 

বা সূর্যাস্তের ছায়ায় কোনো কথোপকথন 

বা সেই সবকিছু যা চিরকালের জন্যে হারিয়ে গেছে 

আর যা আজ শুধুই নিস্তব্ধ যাপন।  


Monday, April 4, 2022

मेरा भारतवर्ष

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-वीरेंद्र चट्टोपाध्याय
अनुवाद: नयना
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मेरा भारतवर्ष
उन पचास करोड़ नग्न इंसानों का है
जो धूप में मेहनत करते हैं सारा दिन,
और रात में सो नहीं पाते
भूख से, ठण्ड से;
जाने कितने राजा आते हैं, चले जाते हैं
इतिहास के आसमान को
ज़हरीला कर जाते हैं ईर्ष्या और द्वेष से
पानी काला हो जाता है, धुएं और कोहरे से
हवा में अँधेरा छा जाता है।
चारों तरफ षड्यंत्र, चारों तरफ लालचियों का प्रलाप
युद्ध और भुखमरी आती है एक दूसरे के होंठ चूमते हुए
धरती काँप उठती है सांप के दंश से, शेर के झपटने से;
लेकिन मेरा भारतवर्ष नहीं पहचानता इन्हें
नहीं मानता इनके फ़रमान;
उसकी संतानें भूख में
ठंड में
चारों तरफ के इस भीषण उन्माद में
आज भी हैं ईश्वर की संतान,
हैं एक दूसरे की सहोदर!
Image courtesy: DNA

Saturday, January 8, 2022

थोड़ा जल्दी चलो भाई

 

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- सुभाष मुखोपाध्याय

अनुवादक: नयना Nayana
"लेनिन को हमने खड़ा कर रखा है
धर्मतला में
ट्राम गुमटी के पास।
कूड़े के ढेर में से भात चुनकर खा रहे है कुछ लोग
कूड़ेदान में हाथ घुसाकर।
लेनिन देख रहें हैं।
गांव से एक आदमी शहरी डॉक्टर के हाथों कंगाल होने आया था
उसके पहले ही उसको कंगाल कर दिया एक जेब-कतरे ने।
लेनिन देख रहें हैं।
शाम ढलते ही जिस लड़की को एक टैक्सी उठाकर ले गई थी ,
शाम खत्म होते होते ,
उबासी लेते हुए
वो फिर आ कर खड़ी हो गई है उसी पेड़ के नीचे।
लेनिन देख रहें हैं।
खड़े रहते रहते लेनिन को भी उबासी आ रही थी ।
अचानक जैसे वो थोड़ा चौंक कर सपाट खड़े हो गए।
जिधर उनकी नज़र है, उधर झांक कर देखा
लाल निशान उड़ाकर मजदूरों का एक विशाल जत्था चला आ रहा है।
मुझे लगा , लेनिन जैसे चिल्लाकर बोल उठे,
सदी बीतने के कगार पर है-
थोड़ा जल्दी चल लो भाई, थोड़ा जल्दी चल लो।"

Original poem: Ektu pa chaliye bhai...

Who is Fumbling on Forgiveness After All?

It has been a long time since I have been musing on this topic. I wanted to write on it quite a few times but I, even I, fear being misunder...