আমি জীবন দিয়ে দেখেছি,
Tuesday, October 27, 2020
আঘাত একটা প্রতিধ্বনি মাত্র~
Monday, October 19, 2020
मेरे सीने की बावन अलमारियाँ
मेरे सीने की बावन अलमारियाँ
- पुर्णेन्दु पत्री
~ अनुवाद: नयना
मेरे सीने में बावन अलमारियाँ हैं शीशम की
मुझे जो भी कुछ पसंद है, सब वहीं हैवो सारी हँसी,
जैसे खुले आसमान में सुनहरे पंखों की उड़ान
वो सारी आँखें, जिनके नीले पानी में बस डुबो कर मारने वाली लहरें
वो सारे स्पर्श, जैसे स्विच छूते ही रोशन कर देने वाले बत्तियां
सब उन अलमारियों के भीतर।
जो सारे बादल टूट कर गिर गए हैं किसी जंगल में स्याह रात की ओर जाते जाते
उनके शोक,
वो सारे जंगल जो पंछियों की ख़ुशी लेकर उड़ने की कोशिश में कुठाराघात से बर्बाद हो गए
उनके रुदन,
जो सारे पंछी गलती से गा उठे बसंत के गीत किसी बरसात की शाम में
उनका सर्वनाश
सब उन अलमारियों के अंदर।
ख़ुद के और अनगिनत आदमी और औरतों के नीले से साये और काला सा खून
ख़ुद के और जाने पहचाने कई युवक- युवतियों के मैले रुमाल
और रद्द किए गए पासपोर्ट
ख़ुद के और इस समय के सारे टूटे हुए फूलदान के टुकड़े
सब वही बावन अलमारियों के किसी अँधेरे कोने में,
किसी ताक में
सीने में।
The original
https://banglarkobita.com/poem/famous/1310
Monday, October 5, 2020
तुम्हारे विषाद
बैठी हो अकेली इस बरसात में -
किसी रेतीले तट पर
पड़ी हो जैसे कोई दीमक लगी तस्वीर
किसी गुज़रे ज़माने की!
कभी बजता था मंदिर के शंखनाद में!
मनुष्य का महान विषाद
नक्काशी किये हुए स्तम्भों से कभी छुआ करता था आकाश!
आज है बिलकुल चुप!
पानी में छूरा घुस जाए -
कोई आर्तनाद नहीं!
ख़ून में रुदन घुस आए -
अब कोई विरोध नहीं!
हर कोई इतना शांत जैसे निश्चिंत बैठा हो अपने बगीचे में
जबकि ख़ुशबू और शोक आमने सामने हैं I
तुम्हारे अवसाद होठों से उठा लेने दो मुझे
हथेली पर सजाना चाहता हूँ मैं!
शुरुआत में रहता है सब कुछ वादों से भरा -
जैसे शुरुआत के सारे पौधे हरे-भरे!
शुरुआत के सारे चेहरों पर
नरम लताओं वाली सफ़ेद अल्पना
सारी बातें किसी चरवाहे की बांसुरी
फिर कुछ ज्यादा ही वास्तविक होने में
बदल जाता है सब कुछ!
आ जाते हैं
आँखों में मोतियाबिंद, गालों में मुहांसे,
सीने में बाल
नाख़ूनों में ख़ून
लालसा और लोभ
अंजीर की तरह गुच्छों में चिपक जाते हैं दांतों से!
अति लालसा में पेड़ लम्बे होते हैं -
और ऊँचा होने से और बहुत सारा आकाश!
ऐसा सोचते हुए जिराफ़ की तरह अपनी गर्दन बढ़ाकर
पेड़ लंबे होते हैं
जबकि हवा में उनके पीले पत्ते, बासी फूल उड़ते,
होश खोते, चक्कर खाते, गिरते रहते हैं
बड़ा सा ढेर लगने लगता है उनका I
पानी और ज़मीन भर जाता है उनके शोक-ध्वनि से !
आख़िर में सब वापस आते हैं
पछतावे के रेत चुनते हैं किसी रेतीली नदी के किनारे -
फूलों की तरह कंकड़ भी!
पॉकेट में कितने सारे फोटो,
आईने के टूटे हुए टुकड़े, आतिशबाजी, होली के रंग,
टेढ़े हो चुके रिकॉर्ड के गाने,
आँचल में जाने कितना कुछ
मनोहर मंत्र-ध्वनि,
शुरुआत में रहता है ऐसे ही सब कुछ वादों से भरा
धीरे धीरे
भीषण नीरवता में, सब से छुपकर
एकसाथ पीले पड़ जाते हैं!
धीरे, बिलकुल चुपके से
आँखों का काजल, बालों की बेनी,
चित्र वाला आँचल
सोने का संदूक, सारी सावधानियां,
सफलता की ऊँची गर्दन,
स्तम्भ, दम्भ, जांघ, जंघा, गर्व, अहंकार
सभी कुछ से चूता है ..
तुम्हारे विषाद होठों पर उठा लेने दो मुझे
हथेली पर रखना चाहता हूँ उन्हें मैं।
सभ्यता, समय, या इंसानों का महान इतिहास
इतने शोक में भी अभी तक मरा नहीं।
क्योंकि इंसान अभी भी अपनी हथेली पर
उठा लेता है औरों के विषाद।
आकाश, पाताल से इतना विष,
दूसरों के होंठों से सारे ज़र्द विषाद चूस लेना चाहता है।
पुरुष, नारी के पास जाता है
नारी, नदी के पास जाती है
नदी जाती है ज़मीन के पास
और ज़मीन देखती है आसमान की ओर।
तुम्हारे विषाद हथेली पर उठा लेने दो मुझे
उन्हें अपने होंठों पर रखे रहना चाहता हूँ मैं!
Who is Fumbling on Forgiveness After All?
It has been a long time since I have been musing on this topic. I wanted to write on it quite a few times but I, even I, fear being misunder...
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Have you read Alice in Wonderland in recent years as an adult? I could not understand why do they even try to pass this book as children...
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I am being sent away. Again! For the umpteenth time. Who was I this time? Who did you send away? That girl who sat with you all throu...