तुम्हारे विषाद हथेली पर उठा लेने दो मुझे
उन्हें होंठो पर रखना चाहता हूँ मैं।
दिन भर....
बैठी हो अकेली इस बरसात में -
किसी रेतीले तट पर
पड़ी हो जैसे कोई दीमक लगी तस्वीर
किसी गुज़रे ज़माने की!
बैठी हो अकेली इस बरसात में -
किसी रेतीले तट पर
पड़ी हो जैसे कोई दीमक लगी तस्वीर
किसी गुज़रे ज़माने की!
तुम्हारे अवसाद उठा लेने दो मुझे हथेली पर
उन्हें होंठो पर रखना चाहता हूँ मैं।
पानी में छूरा घुस जाए -
कोई आर्तनाद नहीं!
ख़ून में रुदन घुस आए -
अब कोई विरोध नहीं!
हर कोई इतना शांत जैसे निश्चिंत बैठा हो अपने बगीचे में
फिर कुछ ज्यादा ही वास्तविक होने में
बदल जाता है सब कुछ!
आ जाते हैं
आँखों में मोतियाबिंद, गालों में मुहांसे,
सीने में बाल
नाख़ूनों में ख़ून
लालसा और लोभ
अंजीर की तरह गुच्छों में चिपक जाते हैं दांतों से!
अति लालसा में पेड़ लम्बे होते हैं -
और ऊँचा होने से और बहुत सारा आकाश!
ऐसा सोचते हुए जिराफ़ की तरह अपनी गर्दन बढ़ाकर
पेड़ लंबे होते हैं
जबकि हवा में उनके पीले पत्ते, बासी फूल उड़ते,
होश खोते, चक्कर खाते, गिरते रहते हैं
बड़ा सा ढेर लगने लगता है उनका I
पानी और ज़मीन भर जाता है उनके शोक-ध्वनि से !
कोई चाहे कितना भी दूर चला जाए
आख़िर में सब वापस आते हैं
शुरुआत में रहता है ऐसे ही सब कुछ वादों से भरा
धीरे धीरे
भीषण नीरवता में, सब से छुपकर
तुम्हारे विषाद होठों पर उठा लेने दो मुझे
हथेली पर रखना चाहता हूँ उन्हें मैं।
सभ्यता, समय, या इंसानों का महान इतिहास
इतने शोक में भी अभी तक मरा नहीं।
क्योंकि इंसान अभी भी अपनी हथेली पर
उठा लेता है औरों के विषाद।
आकाश, पाताल से इतना विष,
मनुष्य का भीषण विषाद
कभी बजता था मंदिर के शंखनाद में!
मनुष्य का महान विषाद
नक्काशी किये हुए स्तम्भों से कभी छुआ करता था आकाश!
आज है बिलकुल चुप!
कभी बजता था मंदिर के शंखनाद में!
मनुष्य का महान विषाद
नक्काशी किये हुए स्तम्भों से कभी छुआ करता था आकाश!
आज है बिलकुल चुप!
पानी में छूरा घुस जाए -
कोई आर्तनाद नहीं!
ख़ून में रुदन घुस आए -
अब कोई विरोध नहीं!
हर कोई इतना शांत जैसे निश्चिंत बैठा हो अपने बगीचे में
जबकि फूलों में लग चुकी है आग!
जबकि ख़ुशबू और शोक आमने सामने हैं I
तुम्हारे अवसाद होठों से उठा लेने दो मुझे
हथेली पर सजाना चाहता हूँ मैं!
शुरुआत में रहता है सब कुछ वादों से भरा -
जैसे शुरुआत के सारे पौधे हरे-भरे!
शुरुआत के सारे चेहरों पर
नरम लताओं वाली सफ़ेद अल्पना
सारी बातें किसी चरवाहे की बांसुरी
जबकि ख़ुशबू और शोक आमने सामने हैं I
तुम्हारे अवसाद होठों से उठा लेने दो मुझे
हथेली पर सजाना चाहता हूँ मैं!
शुरुआत में रहता है सब कुछ वादों से भरा -
जैसे शुरुआत के सारे पौधे हरे-भरे!
शुरुआत के सारे चेहरों पर
नरम लताओं वाली सफ़ेद अल्पना
सारी बातें किसी चरवाहे की बांसुरी
सारी ऑंखें, बग़ैर काजल और चश्मा,
जैसे मासूम हिरण!
फिर कुछ ज्यादा ही वास्तविक होने में
बदल जाता है सब कुछ!
आ जाते हैं
आँखों में मोतियाबिंद, गालों में मुहांसे,
सीने में बाल
नाख़ूनों में ख़ून
लालसा और लोभ
अंजीर की तरह गुच्छों में चिपक जाते हैं दांतों से!
अति लालसा में पेड़ लम्बे होते हैं -
और ऊँचा होने से और बहुत सारा आकाश!
ऐसा सोचते हुए जिराफ़ की तरह अपनी गर्दन बढ़ाकर
पेड़ लंबे होते हैं
जबकि हवा में उनके पीले पत्ते, बासी फूल उड़ते,
होश खोते, चक्कर खाते, गिरते रहते हैं
बड़ा सा ढेर लगने लगता है उनका I
पानी और ज़मीन भर जाता है उनके शोक-ध्वनि से !
किसी और जगह और ज़्यादा प्यार मिल सकता है...
किसी सोने के संदूक में बंध
बस इसी लालच में बचपन के परियों वाला महल खंडहर हो जाता है!
साधारण सूती की साड़ी और नहीं पहनी जाती,
और चोटि में अक्सर झलक जाता है किसी साँप का साया
ईर्ष्या का काजल चढ़ आता है आँखों पर
हँसी में झलक जाती है सफ़ेद आरी!
आख़िर में सब वापस आते हैं
यादों की घनघोर बरसात में
पछतावे के रेत चुनते हैं किसी रेतीली नदी के किनारे -
पछतावे के रेत चुनते हैं किसी रेतीली नदी के किनारे -
उन्हें होठों पर रखना चाहता हूँ मैं।
इंसानी प्रारम्भ भरा हुआ है अस्त-व्यस्त जाने कितने भागम-भाग से!
उस प्रारम्भ में है फूल चुनने वाली कई सारी भोर,
फूलों की तरह कंकड़ भी!
पॉकेट में कितने सारे फोटो,
आईने के टूटे हुए टुकड़े, आतिशबाजी, होली के रंग,
टेढ़े हो चुके रिकॉर्ड के गाने,
आँचल में जाने कितना कुछ
मनोहर मंत्र-ध्वनि,
फूलों की तरह कंकड़ भी!
पॉकेट में कितने सारे फोटो,
आईने के टूटे हुए टुकड़े, आतिशबाजी, होली के रंग,
टेढ़े हो चुके रिकॉर्ड के गाने,
आँचल में जाने कितना कुछ
मनोहर मंत्र-ध्वनि,
पालकी भी जाती है पंछी जाता है जितनी दूर....
शुरुआत में रहता है ऐसे ही सब कुछ वादों से भरा
धीरे धीरे
भीषण नीरवता में, सब से छुपकर
वादे, पेड़, और इंसान
एकसाथ पीले पड़ जाते हैं!
धीरे, बिलकुल चुपके से
आँखों का काजल, बालों की बेनी,
चित्र वाला आँचल
सोने का संदूक, सारी सावधानियां,
सफलता की ऊँची गर्दन,
स्तम्भ, दम्भ, जांघ, जंघा, गर्व, अहंकार
सभी कुछ से चूता है ..
एकसाथ पीले पड़ जाते हैं!
धीरे, बिलकुल चुपके से
आँखों का काजल, बालों की बेनी,
चित्र वाला आँचल
सोने का संदूक, सारी सावधानियां,
सफलता की ऊँची गर्दन,
स्तम्भ, दम्भ, जांघ, जंघा, गर्व, अहंकार
सभी कुछ से चूता है ..
रिसते हुए पसीने जैसा अद्भुत विषाद!
तुम्हारे विषाद होठों पर उठा लेने दो मुझे
हथेली पर रखना चाहता हूँ उन्हें मैं।
सभ्यता, समय, या इंसानों का महान इतिहास
इतने शोक में भी अभी तक मरा नहीं।
क्योंकि इंसान अभी भी अपनी हथेली पर
उठा लेता है औरों के विषाद।
आकाश, पाताल से इतना विष,
बारूद और कीटाणुओं के आक्रमण के बावजूद
अभी भी इंसान किसी महान अमृत की खोज में
दूसरों के होंठों से सारे ज़र्द विषाद चूस लेना चाहता है।
अभी भी विषाद की खोज में
पुरुष, नारी के पास जाता है
नारी, नदी के पास जाती है
नदी जाती है ज़मीन के पास
और ज़मीन देखती है आसमान की ओर।
तुम्हारे विषाद हथेली पर उठा लेने दो मुझे
उन्हें अपने होंठों पर रखे रहना चाहता हूँ मैं!
दूसरों के होंठों से सारे ज़र्द विषाद चूस लेना चाहता है।
पुरुष, नारी के पास जाता है
नारी, नदी के पास जाती है
नदी जाती है ज़मीन के पास
और ज़मीन देखती है आसमान की ओर।
तुम्हारे विषाद हथेली पर उठा लेने दो मुझे
उन्हें अपने होंठों पर रखे रहना चाहता हूँ मैं!
This is a translation of Purnendu Patri's poem called Tomar Bishaadguli ... তোমার বিষাদগুলি .
You can read the original here https://banglarkobita.com/poem/famous/334
इंसान अभी भी अपनी हथेली पर
ReplyDeleteउठा लेता है औरों के विषाद!
तभी तो "सभ्यता, समय, या इंसानों का महान इतिहास ...इतने शोक में भी अभी तक मरा नहीं.."
Deleteभावनाओ का शब्दों में पिरोयी हुई पंक्तियाँ
ReplyDeleteअद्भुत
Bahut bahut shukriya!
Delete❤❤ amazing
ReplyDeletethank you :)
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