Thursday, January 21, 2021

सारा शहर परेशान है कि बिनी, बिनी क्यों है?

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बिनी, मुझे तुमसे प्यार करना चाहिए था 

मुआफ़ करना भटक गई!

इस ख़त को तुमसे प्यार न कर पाने की मुआफ़ी-नामा समझना।  


तुमसे प्यार न कर पाने की वजह के तौर पर मैं ये ज़रूर कह सकती थी 

कि मैं कभी मिली नहीं तुमसे -

पर झूठ होता वो!

तुम जानती तो हो, बिना मिले मैंने बहुत बार प्यार किया है 

कभी आवाज़ ज़रिया बनी तो कभी सोच 

कभी कला ज़रिया बनी तो कभी लेख 

मानती हूँ तुम्हारी बारी जब आई तो इनमें से किसी ने कोई सहारा नहीं दिया 

लेकिन जानती तो थी तुम्हें जाने कितने सालों से -

तुम्हारे ही प्यार में पड़ जाना बनता था बिनी  

मुआफ़ करना भटक गई!


तुम जब गुनगुनाती हो कार चलाती हुई

और झांक कर देखती हो खिड़की से आसमां की ओर 

बादल अपने आप घिर आते हैं।

तब किसी को भी प्यार हो जाए तुमसे -

बेकार की बातें हैं बिनी कि आँखों से  तुम बादल उड़ाती हो।  

उन आँखों में बरसात और थिरकता मोर,

दोनों देखे हैं मैंने।  

सपने में।  

तुम्हें, मेरा एक बार प्यार करना तो बनता था बिनी। 

मुआफ़ करना भटक गई! 


रातों में नदी किनारे घुँघरु बंधी बैलेरिना 

रंग-महल में, अजब शहर में

तुम हो कि तुम्हारी बेटी? दोनों एक से लगते हैं।

थोड़ा बड़ा, थोड़ा छोटा-सा साया साथ चलते, 

कभी रुकते, नाचते- गाते 

मुझे तुमसे प्यार करना था, बिनी, 

दो साये साथ चलते मेरे।  


तुम्हारे  पैरों में वो परवाज़ नाम की  पायल  देखी थी मैंने 
किसी रेतीली समन्दर के किनारे धूप सेंकते हैं वो 

और फिर पंख लग जाते है उनमें - 

उनकी उड़ान के फिर क्या कहने!

मुझे तुम्हारा घोंसला बनना था, बिनी -

मुझे हमेशा तुमसे प्यार करना था।  

मुआफ़ करना।  भटक गई!





First photo courtesy: Kairat Murataliev on Unsplash

Sunday, January 17, 2021

रिश्ते

 "कुछ रिश्ते टूट जाने पर लगता है

अब और जीना मुमकिन नहीं होगा
फिर धीरे धीरे वही आदत में घुल जाता है इंसान
फिर से सीधा खड़ा होता है
और बालों में उँगलियाँ फेरते हुए
फिर उतर आता है भीड़ में
कोई भी समझ नहीं पाता
इस इंसान के भीतर, है एक और इंसान
टूटा सा, सिमटा हुआ सा एक और इंसान"











Original poem by Ranjan Acharya

Sunday, January 3, 2021

अमीर ख़ुसरो और मैं

अमीर ख़ुसरो से मुझे अक़्सर मिलने जाना पड़ता है

ख़ुसरो मेरे अनगिनत प्रेमियों में से सबसे लम्बे अरसे तक टिकने वाले इंसान हैं

यानि इस मामले में अभी तक के सबसे कामयाब आदमी भी!

वैसे तो ज़रूरी और ग़ैर-ज़रूरी काम मिलाकर मुझे मसरूफ़ियत काफ़ी है

पर ये बात अमीर जानते हुए भी अनजान बने रहना चाहते हैं!


तो फ़िर गर्मी की शुरुआत में, दिल्ली जानलेवा हो जाने के ठीक पहले

या फ़िर उसके आख़िर में, 

जब गर्म हवाओं के साथ एक तरह का समझौता हो चुका हो,

या फ़िर सर्दियों के आमद की हल्की ख़ुशी बाँटने की तैयारी में

मतलब साल में कई बार किसी न किसी बहाने से

उनसे मिलने जाना पड़ता है मुझे -


वैसे पूरी बात उन पर डाल भी दूँ पर इतना बताना तो बनता है कि

अमीर के साथ गुफ़्तगू अज़ीज़ है मुझे भी।  

पर हैं तो वो आदमी ही न! ये बातें गलती से भी निकल आयी तो अगले ही दिन

शुरू हो जायेगा मेरे सिर पर चढ़ कर सूफियाना रक़्स-

निजामुद्दीन का आँगन काफ़ी नहीं रह जायेगा तब!

तो ये दिलचस्पी बिल्कुल नहीं जताती मैं।  


वैसे भी मेरी निजी  ज़िन्दगी में दखलंदाज़ी कुछ कम नहीं है इनकी

मसलन, मेरे हर प्रेमी की ख़बर रखते हैं वो

प्रेमी नहीं, मानो मेरी ज़िन्दगी के हर आदमी की ख़बर रखते हैं 

और बिन बात के अचानक, "प्रणय को उतना तूल मत दो!"

"कनिष्क बिल्कुल समझदार नहीं लगता मुझे, धक्का खाओगी तुम!" से लेकर -

"माफ़ कर रहे हो, कर दो! कोई बात नहीं।  

"लेकिन बस चाचा हैं इसलिए इतिहास भूल न जाना।"

ऐसे और भी बहुत कुछ दबी आवाज़ में मेरे कानों में बोलतें जातें हैं

मैं ध्यान नहीं देती। नज़रअंदाज़ करती हूँ। सुनकर भी नहीं सुनती

 लेकिन वो तो हम बसंत की हवा के साथ भी करते हैं

या फिर ऊँची चट्टानों से कूदते हुए झरने को भी क्या उतना सुनते हैं,

जितना सुनना लाज़मी है?


वैसे लाज़िम सुनते ही अमीर गुस्सा हो जाते हैं!

"क्या लाज़िम है क्या नहीं, ग़र सोचता तो तुम से इश्क़ करता जान?

वो भी सदियों के इस पार से?"

तब मैं चुप हो जाती हूँ और उनके शरीर पर बिछी चद्दर प्यार से ठीक कर देतीं हूँ

बोलती हूँ, ध्यान रखना। अब मान भी लिया करो कुछ क़ायदा।  

सर्दियों की सुबह इतनी जल्दी क्यों उठते हो?

सोना थोड़ी देर और!  

ये सब सुनते वक़्त अमीर मेरे हाथ अपनी हाथों में पकड़ कर रखते हैं

नरम और मज़बूत उस मुठ्ठी में बिछी हुई चांदनी की तरह शांत हो जाती हैं मेरी उँगलियाँ

और उँगलियों के पोरों में बहता ख़ून भी।  

दिल निस्तब्ध हो जाता है

गहरे इश्क़ के सामने जैसे घुटने टेक देता है निरंतर बहता काल -


The original by Ankita Ghosh

 আমির খসরুর সাথে আমার প্রায়ই দেখা করতে যেতে হয়

আমির খসরু আমার বহু প্রেমিকের মধ্যে সবথেকে লম্বা সময় থেকে যাওয়া পুরুষ

কাজেই এ পর্যন্ত সবথেকে সফলও বটে
কাজ ও অকাজ মিলিয়ে আমি যে খুবই ব্যস্ত মহিলা
সেকথা সম্ভবত আমির বুঝেও না বোঝার ভান করে
তাই গ্রীষ্মের শুরুতে, দিল্লি ঠিক প্রাণান্তকর হয়ে ওঠার আগে
কিংবা শেষে, যখন দাবদাহের সঙ্গে একটা বোঝাপড়ায় এসে পড়া গেছে
বা শীতের শুরুর মিহি আনন্দের উপক্রমে
মোট কথা বছরে বেশ কবার উপলক্ষ্যের অছিলায়
সে লোকের সাথে দেখা করতে যেতে হয় আমার
আসলে পুরো ব্যাপারটা ওর ওপর চাপিয়ে দিলেও
আমিরের সাথে গুফতগু ভালোই লাগে আমার
কিন্তু পুরুষ মানুষ তো, এসব কথা বলেছ কি পরের দিন
কাঁধে চড়ে ঘাড়ের দুপাশ দিয়ে দু ঠ্যাং ঝুলিয়ে নৃত্য হবে শুরু
কাজেই ডিজিন্টারেস্ট এর ভাব ধরে রাখি আমি
এমনিই ব্যক্তিগত জীবনে দখলদারি কিছু কম নেই তার
যেমন ধরুন আমার প্রত্যেক প্রেমিকের খবর রাখে সে
বলা ভালো প্রত্যেক পুরুষের
এবং কথা নেই বার্তা নেই, 'প্রবাল কে অতটা পাত্তা না দিলেই ভালো করবে'
'কিংশুককে আমার মোটেও সমঝদার মনে হয় না, ধাক্কা খাবে তুমি' থেকে শুরু করে
'মাফ করে দিচ্ছ দাও, কিন্তু কাকা বলেই তার পুরোনো সব অপরাধ ভুলে যেও না যেন'
ইত্যাদি বহুবিধ উপদেশ বাণী ফিসফিস করে বলতেই থাকে
আমি যদিও পাত্তা দিই না, কিন্তু সে তো আমরা বসন্ত বাতাস কেও দিই না
কিংবা উঁচু টিলার ওপর থেকে আবেগে ঝাঁপ দিয়ে পড়া জলপ্রপাতকেও
কি আর ততটা পাত্তা দিই যতটা দেয়া উচিত?
খসরু আবার উচিত বললে খুব রেগে যায়
'উচিত অনুচিত ধরে থাকলে কি আর তোমায় ভালোবাসতাম যুগান্তের ওপার থেকে, জান?'
ওর শরীরের ওপর যত্নের চাদর বিছিয়ে দিই আমি
বলি, শরীরের খেয়াল রেখো, বেশি বেনিয়ম করো না
শীতের সময়টা অত ভোরে ওঠার কি দরকার, একটু বেলা পর্যন্ত ঘুমিয়ো
এসব কথা বলার সময় আমির আমার হাত ধরে থাকে মুঠো করে
কমনীয় অথচ সবল সে মুঠোয় সমর্পিত জ্যোৎস্নার মতো
শান্ত বসে থাকে আমার আঙুল, আঙুলের শিরা উপশিরায় বয়ে চলা রক্তকণিকারা
হৃদয় স্তব্ধ হয়,
গভীর প্রেমের কাছে নতজানু হয় বহমান কাল

Friday, January 1, 2021

तगादे की चिट्ठी

अभी भी नहीं मिला

मेरा कुर्ता, दुपट्टा, सीने पर वो खुली क़िताब, 

और पीला दोशाला 

बिन इनके सर्दियाँ काटना बड़ा मुश्किल है

लौटते डाक से

मेरे हिस्से की गरमाहट वापस कर दो।


नरम लपटें अब नहीं उठती यहाँ स्निग्धता की 

आग सेकने का रिवाज़ भी अब रहा नहीं  

वो दोशाला भेज दो तो थोड़ा देह ताप लूँ --


हड्डियों तक धँस गई है ज़ुल्म की बर्फ़ीली हवा

मेरी आधी रात की सोंधी ख़ुशबू वाली 

अलबेली, मस्त फिरती हवा,

हो सके तो वापस कर दो !


तुम जो पश्चिमी बादल लाए थे साथ

रखा है अभी भी दराज में 

एक बार भी छुआ नहीं उसे फिर कभी मैंने

निश्चल, सौम्य, सफ़ेद बादल अब भी वहीं पड़े हैं

यक़ीन मानो, तुम्हारे कहते ही लौटते डाक में वापस कर दूंगी!

बारिश करवा लेना तुम उससे- 

मुझे बस वो मेरे पत्तों के बीच खिली हुई सुनहरी धुप ज़रूर वापस कर दो....    





Who is Fumbling on Forgiveness After All?

It has been a long time since I have been musing on this topic. I wanted to write on it quite a few times but I, even I, fear being misunder...