Saturday, November 14, 2020

ख़ुशी

 मेरे ज़हन में कुछ ख़याली, मनगढंत ख़ुशियां भरी पड़ी हैं

सच-नुमा! सच ही हैं जैसे।  

कभी-कभी लगता है सच से भी ज़्यादा सच्ची हैं

साल दर साल लम्बाई बढ़ी है उस लिस्ट की 

जुड़ती गईं नई नई ख़ुशियाँ उसमें 

सिर्फ़ मेरे ज़हन में  - 


घर लौटने की ख़ुशी, अब्बू का साथ पाने की ख़ुशी, 

अम्मा के साथ पैर पसारकर लम्बे समय तक बातें करते रहने की ख़ुशी,

तसल्ली भरे घर में  सुकून वाली ख़ुशी

तुम्हारा हाथ पकड़कर रात भर तारे देखने की ख़ुशी -  

ख़ामोश रातों में कहीं दूर घास पर लेट कर।  


और भी बहुत सारी ख़ुशियाँ हैं मेरी -

तारों भरी रातों में रस्सी से खटिया बुनने जैसा ही बुना है उन्हें मैंने 

एक लम्बे अरसे से, इतने ध्यान से-

जैसे फूलों वाला नक्शा बनाता है कोई क्रोशिया के कांटे से।  

इतना दिल लगाया कि कभी-कभी ख़ुद ही बुद्धू  बन जाती हूँ 

किसी बेपरवाह पल में सोच लेती हूँ, ये सब सच ही हैं जैसे! 


इतनी बार सुना है मैंने इन सब ख़ुशियों के बारे में इतने लोगों से 

कभी-कभी लगने लगता है जैसे ये ख़ुशियाँ  मेरे पास भी हैं।

एक नरम सी गोद है, 

कुछ मुलायम, स्निग्ध दोपहरियाँ हैं, 

है पेड़ों से घिरा हुआ एक शीतल सा पोखर  

जिसके ठंडे पानी में कभी भी उतर जाना मुमकिन है!  

एक हरसिंगार के फूलों वाला आंगन भी है उन शामों के लिए 

जब दिल बिलकुल ख़ाली सा लगता है।  

"तू आगे बढ़ती जा बस! हम हैं साथ में" 

लगता है कुछ ऐसा जैसे मैंने भी सुना है!


लगता है ये सब सच में हुआ था 

सच में देखे हैं तारे तुम्हारे साथ रात-भर, 

रात की ओस और नरम हवा सच में शांत कर गए थे मुझे 

जब चाहूँ लौट सकती हूँ वहाँ।

जैसे सच में एक लौट कर जाने लायक घर मेरा भी है

जहाँ सच है, शांति है - 

और है बिना किसी शर्तों के ढेर सारा प्यार।  


सच-नुमा ख़्वाबीदा ख़ुशियों की यही एक बुरी बात है 

कभी कभी वे सच लगने लगती हैं।


N.B. It is a translation of my own poem by the same name in Bengali https://ladybugsfieldnotes.blogspot.com/2014/09/blog-post.html?fbclid=IwAR2m3HPchEeoVx3TP130VhocY-P5rulk9YatIMSXdT3NivwmVjztBN89xK4

Tuesday, October 27, 2020

আঘাত একটা প্রতিধ্বনি মাত্র~

 আমি জীবন দিয়ে দেখেছি,

কোনো দুঃখই আমার একার নয়।
প্রত্যেকবার আঘাত পাওয়া মাত্র বুঝে যাই
এই আঘাতটাও অন্য কোনো আঘাতের প্রতিধ্বনি!
আমি তাই কান পেতে অপেক্ষা করি সেই মুহূর্তটার জন্যে,
যখন আমার বিষাদ একটা জানলা হয়ে উঠবে
যে জানলা দিয়ে আমি দেখতে পাবো এমন সবকিছু,
যা আগে কখনো দেখি নি।

আমার সবথেকে বেশী হাতবদল করা স্বপ্নের আতশ-কাঁচের ভেতর দিয়ে
একবার প্রবল হাওয়ার মুখে একটা কাপাস ফুলের মাথা
খারাপ হয়ে যেতে দেখেছিলাম!
আর দেখেছিলাম ঠিক সেই ক্ষণেই সে কেমন
হাজার হাজার বীজ হয়ে চতুর্দিকে ছড়িয়ে পড়েছিলো!


The original:
What I know about living is the pain
is never just ours.
Every time I hurt I know
the wound is an echo, so I keep listening
for the moment when the grief
becomes a window,
when I can see what I couldn’t see before.
Through the glass of my most bartered dream
I watched a dandelion lose its mind
in the wind and when it did,
it scattered a thousand seeds.
-Andrea Gibson

Monday, October 19, 2020

मेरे सीने की बावन अलमारियाँ

 मेरे सीने की बावन अलमारियाँ

- पुर्णेन्दु पत्री 

~ अनुवाद: नयना 

मेरे सीने में बावन अलमारियाँ हैं  शीशम  की 

मुझे जो भी कुछ पसंद है, सब वहीं है 

वो सारी हँसी, 

जैसे खुले आसमान में  सुनहरे पंखों की उड़ान 

वो सारी आँखें, जिनके नीले पानी में बस डुबो कर मारने वाली लहरें

वो सारे स्पर्श, जैसे स्विच छूते ही रोशन कर देने वाले बत्तियां 

सब उन अलमारियों के भीतर।  


जो सारे बादल टूट कर गिर गए हैं किसी जंगल में स्याह रात की ओर जाते जाते  

उनके शोक,

वो सारे जंगल जो पंछियों की ख़ुशी लेकर उड़ने की कोशिश में कुठाराघात से  बर्बाद हो गए

उनके रुदन,

जो सारे पंछी गलती से गा उठे बसंत के गीत किसी बरसात की शाम में 

उनका सर्वनाश  

सब उन अलमारियों के अंदर।  


ख़ुद के और अनगिनत आदमी और औरतों के नीले से साये और काला सा खून

ख़ुद के और जाने पहचाने कई युवक- युवतियों के मैले रुमाल 

और रद्द किए गए पासपोर्ट 

ख़ुद के और इस समय के सारे टूटे हुए फूलदान के टुकड़े 

सब वही बावन अलमारियों के किसी अँधेरे कोने में,

किसी ताक में 

सीने में।


The original

https://banglarkobita.com/poem/famous/1310

Monday, October 5, 2020

तुम्हारे विषाद

तुम्हारे विषाद हथेली पर उठा लेने दो  मुझे 
उन्हें होंठो पर रखना चाहता हूँ मैं।  
अविरल बारिश है आज यादों में, 
दिन भर.... 
बैठी हो अकेली इस बरसात में -
किसी रेतीले तट पर 
पड़ी हो जैसे कोई दीमक लगी तस्वीर 
किसी गुज़रे ज़माने की! 

तुम्हारे  अवसाद उठा लेने दो मुझे हथेली पर  
उन्हें होंठो पर रखना चाहता हूँ मैं।

मनुष्य का भीषण विषाद 
कभी बजता था मंदिर के शंखनाद  में!
मनुष्य का महान विषाद
नक्काशी किये हुए स्तम्भों से कभी छुआ करता था आकाश!  
आज है बिलकुल चुप! 

पानी में छूरा घुस जाए - 
कोई आर्तनाद नहीं!
ख़ून में रुदन घुस आए -  
अब कोई विरोध नहीं!
हर कोई इतना शांत 
जैसे निश्चिंत बैठा हो अपने बगीचे में 
जबकि फूलों में लग चुकी है आग!
जबकि ख़ुशबू और शोक आमने सामने हैं I

तुम्हारे अवसाद होठों से उठा लेने दो मुझे 
हथेली पर सजाना चाहता हूँ मैं!

शुरुआत में रहता है सब कुछ वादों से भरा - 
जैसे शुरुआत के सारे पौधे हरे-भरे! 
शुरुआत के सारे चेहरों पर 
नरम लताओं वाली सफ़ेद अल्पना 
सारी बातें किसी चरवाहे की बांसुरी 
सारी ऑंखें, बग़ैर काजल और चश्मा,
जैसे मासूम हिरण!

फिर कुछ ज्यादा ही वास्तविक होने में 
बदल जाता है सब कुछ!
आ जाते हैं
आँखों में मोतियाबिंद, गालों में मुहांसे, 
सीने में बाल 
नाख़ूनों में ख़ून
लालसा और लोभ 
अंजीर की तरह गुच्छों में चिपक जाते हैं दांतों से!

अति लालसा में पेड़ लम्बे होते हैं - 
और ऊँचा होने से और बहुत सारा आकाश!
ऐसा सोचते हुए जिराफ़ की तरह अपनी गर्दन बढ़ाकर 
पेड़ लंबे होते हैं 
जबकि हवा में उनके पीले पत्ते, बासी फूल उड़ते, 
होश खोते, चक्कर खाते, गिरते रहते हैं
बड़ा सा ढेर लगने लगता है उनका I
पानी और ज़मीन  भर जाता है उनके शोक-ध्वनि से !

किसी और जगह और ज़्यादा प्यार मिल सकता है... 
किसी सोने के संदूक में बंध 
बस इसी लालच में बचपन के परियों वाला महल खंडहर हो जाता है!
साधारण सूती की साड़ी और नहीं पहनी जाती, 
और चोटि में अक्सर झलक जाता है किसी साँप का साया 
ईर्ष्या का काजल चढ़ आता है आँखों पर 
हँसी में झलक जाती है सफ़ेद आरी!


कोई चाहे कितना भी दूर चला जाए 

आख़िर में सब वापस आते हैं

यादों की घनघोर बरसात में
पछतावे के रेत चुनते हैं किसी रेतीली नदी के किनारे - 

उठा लेने दो 
अब हथेली पर तुम्हारे विषाद   
उन्हें होठों पर रखना चाहता हूँ मैं।  


इंसानी प्रारम्भ भरा हुआ है अस्त-व्यस्त जाने कितने  भागम-भाग से!
उस प्रारम्भ में है फूल चुनने वाली कई सारी भोर, 
फूलों की तरह कंकड़ भी! 
पॉकेट में कितने सारे फोटो, 
आईने के टूटे हुए टुकड़े, आतिशबाजी, होली के रंग, 
टेढ़े हो चुके रिकॉर्ड के गाने, 
आँचल में जाने कितना कुछ 
मनोहर मंत्र-ध्वनि,
पालकी भी जाती है पंछी जाता है जितनी दूर....

शुरुआत में रहता है ऐसे ही सब कुछ वादों से भरा 
धीरे धीरे
भीषण नीरवता में, सब से 
छुपकर 
वादे, पेड़, और इंसान 
एकसाथ पीले पड़ जाते हैं! 

धीरे, बिलकुल चुपके से 
आँखों का काजल, बालों की बेनी,
चित्र वाला आँचल 
सोने का संदूक, सारी सावधानियां,
सफलता की ऊँची गर्दन,
स्तम्भ, दम्भ, जांघ, जंघा, गर्व, अहंकार 
सभी कुछ से चूता है 
.. 
रिसते हुए पसीने जैसा अद्भुत विषाद! 

तुम्हारे विषाद होठों पर उठा लेने दो मुझे 
हथेली पर रखना चाहता हूँ उन्हें मैं।  

सभ्यता, समय, या इंसानों का महान इतिहास 
इतने शोक में भी अभी तक मरा नहीं।
क्योंकि इंसान अभी भी अपनी हथेली पर 
उठा लेता है औरों के विषाद। 
आकाश, पाताल से इतना विष, 
बारूद और कीटाणुओं के आक्रमण के बावजूद 
अभी भी इंसान किसी महान अमृत की खोज में 
दूसरों के होंठों से सारे ज़र्द विषाद चूस लेना चाहता है।   

अभी भी विषाद की खोज में 

पुरुष, नारी के पास जाता है 
नारी, नदी के पास जाती है 
नदी जाती है ज़मीन के पास
और ज़मीन देखती है आसमान की ओर।

तुम्हारे विषाद हथेली पर उठा लेने दो मुझे 
उन्हें अपने होंठों पर रखे रहना चाहता हूँ मैं!

This is a translation of Purnendu Patri's poem called Tomar Bishaadguli ... তোমার বিষাদগুলি . 
You can read the original here https://banglarkobita.com/poem/famous/334

Friday, September 11, 2020

ये मस्तानी रात!

 साला ... आज चढ़ा ली है मैंने बहुत!!

रात के साथ याराना पुराना है मेरा।  

कंदुपट्टी की किसी रंडी की आँखों 

के सुरमे का इशारा है,

इस मस्तानी रात के पूरे बदन में!

 पैर हलके से लगते है

इधर-उधर पड़ते हैं

गहरे काले अब्र* के - 

सुनसान महल के भीतर चले जा रहे हो 

जैसे!

ज़मीन ने पर बांध रखा हैं मेरे पाँव - -


अबे कौन है तू जिन्न का पूत सामने खड़ा?

हो जा किनार!

दिख नहीं रहा तुझे रास्ते में उतरा हूँ मैं?

सटक जा तू!

नहीं तो पिछवाड़े पर लात पड़ेगी!

पड़ेगा जोर का चांटा गालों पर!!

शरीर के आंगन में आज चिराग जल रहे हैं बेशुमार!

 

मुझे कोई कहता है "मोइफा का बेटा",

कोई "जुम्मन का बाप", 

"हुस्ना बानो का शौहर"

कोई कहता है "सुबराती मिस्त्री"!

बेशरम गली की चंपाचूमकर कहती है,

"तुम इस दिल के सौदागर हो मेरे!

मेरे जान के हक़दार!"

 

अपने गले में किसका गीत सुनता हूँ पर ठंडे आंसुओं से भरा?

असल में कौन हूँ मैंकहाँ से आया हूँ इस दग़ाबाज़ दुनिया में?

और जाऊंगा भी कहाँ आख़िर में उस्ताद?

चूड़ीहट्टाचान खां का पुल, चकबाज़ार,

आशक जमादार लेनबोंसाल

चाहे कोई भी जगह हो मकान,

आदमी मैं वो एक ही हूँगोल सा मुँहसर पर बाबरी

ठुड्डी पर ज़रा सी दाढ़ीगाल पर दाग,

जैसे अठन्नी हो एक पुराने ज़माने की!

 

अभी मेरी अपनी हथेली तक बेगानी लगती है मुझे!मेरा ख़ुद का जिगर भी लगता है

जैसे होगा किसी और ही इंसान का!

शरीर के अंदर ऐसे लोटता-पोटतापलटी खाता है

जैसे ज़रा भी चैन नहीं है इसको!


दिल जैसे जिंजीरा" की जंगली ज़मीनया वीरान आंगन कोई!

मेरी जान पर रेंग रहा हो जैसे कोई डरा हुआ ज़हरीला बिच्छू!

और ऐसी रातों में मुझे ख़ुद से भी डर लगता है

लगता है जैसे मैं ख़ुद भी उठ कर आया हूँ बीच रात

ज़मीन के बहुत नीचे सेबहुत ज़माने बाद!

 


ये किसकी मैय्यत जा रही है अंधेरी रात में?

बीवी बच्चा छोड़ कौन पड़ा है

अकेला लकड़ी की खाट पर बेफ़िकर

कोई नवाब हो जैसे - 

अबे समझे के नहीं तुम ससुर के नाती!

अभी अज़राईल**  कर खड़ा हो जाए तो

तुम भी  सीधा जा कर घुस जाएगा किसी अंधेरी क़ब्र में!

तेेेरा दिमाग़ भी  सुबराती मियां, मेरी जेब की  तरह ही है!

बिलकुल सफा़-चट!!

 

पर अब भी ज़िंदा हूँअभी भी नाक में आती है

गुलाब की ख़ुशबूमठ्ठे की तरह चांदनी खिलती है जब,

अजीब सा खिल उठता हूँ मैं।

ख़्वाबों की कोई ख़ूबसूरत लड़की,

गहरा समुंदरसुन्दर सी नावऔर आसमानी परियों की बारात

खिड़की से आती हुई धूपझूम क़व्वाली की तानेंचिड़ियाँ -

उदास बनाता है यादों को!

हाँअभी भी ज़िंदा हूँ मैं,

और मौत के पिछवाड़े में लात लगाकर

मौत तक सही सलामत ज़िंदा रहना चाहता हूँ!

 

ये सब बड़ी बड़ी कोठीरास्ते का किनारामस्जिद की मिनार

नल का मुँहबेगानी मैय्यतफ़जर के वक़्त चिड़ियों की आवाज़

अंधे फ़कीर की लाठी की आवाज़जैसे ज़िक्र^

सब कुछ, अभी सब कुछ ख़्वाब सा लगता है!

और ये बंदा?

ये बंदा भी ख़्वाब?


शामसुर रहमान 

Translation: नयना 


*अब्र = बादल 

**अज़राईल= The Angel of Death, who takes the souls from bodies when people die.

"जिंजीरा: A place in Bangladesh

^ज़िक्र: भक्तिपूर्ण कृत्य हैं, मुख्य रूप से सूफ़ी इस्लाम में, जिसमें छोटे वाक्यांशों या प्रार्थनाओं को मन में या जोर से बार-बार चुपचाप सुनाया जाता है। इसे प्रार्थना माला के सेट पर या हाथ की उंगलियों के माध्यम से गिना जा सकता है।

P.C. Alamy website


Thursday, September 3, 2020

अभी भी खड़ा हूँ, यह एक तरह का घमण्ड है मेरा !

 अभी भी खड़ा हूँ, यह एक तरह का घमण्ड है मेरा !

सिर चक्कर खा रहा है .. लगातार,
पैरों तले ज़मीन सारा दिन जैसे खिसक रही हो।
खाली क़ब्रिस्तान के अलावा अभी
और कुछ भी नहीं दिख रहा है मुझे -
तब भी खड़ा हूँ सीधा -
तेज़ हवा में चेहरा स्थिर टिका-कर!

जलवायु विभाग की बहुत ज़रूरी कोई उद्घोषणा की तरह
दसों दिशाएँ एक साथ बोल रही हैं -
"तुम्हारी हड्डियों में घास उगती जा रही है,
सीने में बर्फ़ जमा हो रही है -
बड़े अकेले होते जा रहे हो तुम!"

मेरे भूखण्ड से मुझे ही बेदख़ल करने को
जाने कितने लठैत आ रहे हैं
चारों दिशाओं से!
वे जल्दी में हैं -
मेरे सपने की सारी चल-अचल संपत्ति
कुर्की करनी है उन्हें !
कोई कोई बोली लगा रहा है चिल्लाकर!

लेकिन मैं किसी त्रस्त, पीड़ित किसान की तरह
अभी भी खड़ा हूँ अपनी कुटिया के छप्पर पर।
नहीं छोड़ रहा हूँ पानी में डूबा हुआ अपना ठिकाना!

मेरे ख़िलाफ़ खुशियाँ लगाती है पोस्टर निरंतर
हर दीवार पर
मेरे ख़िलाफ़ उम्मीदें बाँटते हैं इश्तिहार
हर गली मोहल्ले में -
मेरे ख़िलाफ़ शांति करती है सत्याग्रह!
मेरे अन्दर सड़ान ने
गाड़ लिया है अपनी हड्डी और खोपड़ी वाला
गहरा काला झंडा!

मेरे पिता ने इतनी व्यर्थ कोशिशों के शव
ढोए हैं तमाम उम्र कंधों पर
छल के माया-हिरण ने उनको इतना भटकाया है कि
आत्महत्या कर लेना चाहिए था उन्हें, लेकिन मेरे पिता
जैसे वह अश्वारोही हों जो जीन से फिसलने के बाद भी
घोड़े के गर्दन के बाल पकड़कर लटकता रहता है!
दाँत भींच कर! ज़िद्दी!

मेरी माँ ने इतना दुःख सहा है -
इतने सारे पुराने सपनों के चीथड़ों से गुदड़ी
सी है उन्होंने छुपकर,
देखे हैं इतने सारे लाल घोड़े फिरते हुए गली मोहल्ले में
इतनी बार सोते-जागते भूकंप से कांप उठी है वह -
भयंकर कोई दिमाग़ी बीमारी होना स्वाभाविक था,
लेकिन घोर पागलपन उनके बिलकुल करीब रहकर भी
उन्हें अपनी सामान्य स्थिति के नूरीले रेहल से
एक बूँद हटा नहीं पाया!
शायद इसीलिए, ऐसे कठिन समय में
मेरी अपनी धमनीयों में
किसी ज़िद्दी घोड़े के नाल की आवाज़ गूंजती रहती हैं!

किसी भी तरफ बढ़ा लूँ पैर
कभी भी कहीं नहीं पहुँच पाऊँगा मैं।
मैं वह खोजी-यात्री हूँ जिसके पैरों के निशान
मरुभूमि सहेज कर रख लेती है क्षण भर!
जिसका उदास कंकाल
पड़ा रहता है रेत पर, असहाय -
जबकि पास मे ही था मरुद्यान!

क्या कहूँ यह क्या हो जाता है कि
कभी रक्त की धार से
और कभी भरपूर चाँदनी से
भर जाता है दिल मेरा।
जिस तरफ भी हाथ बढ़ाऊँ
ज़मीन धँसने लगती है
मेरे फैले हुए हाथ खो जाते हैं
किसी अथाह गह्वर में !

लगता है मैं ख़ुद जैसे
किसी प्रागैतिहासिक विशालकाय
जानवर की पीठ पर
अकेला खड़ा हूँ; चारों तरफ़
बह रहे हैं लावा-स्त्रोत,
ज़मीन हिल रही है निरंतर!
प्रलय के काल में भी भगोड़ा नहीं
अपने भूभाग में एकरुख
अभी भी खड़ा हूँ मैं,
यह एक तरह का घमण्ड है मेरा!
~ शमसुर रहमान
Translated by: Nayana

Friday, August 21, 2020

भूल जाना!

अब तुम सब कुछ भूल जाना!

कोरे काग़ज़ की तरह हो जाना!

सपाट, सफ़ेद, अनछुए से।

 अब "सुनो" किसी से न कहना!

और हाँ, लगे हाथ

"बोलो" भी ख़त्म कर ही कर लेना  

"तुम भी!! उफ़्फ़!" 

अब कभी मत बोलना!

क्या पता! चुभ जाए, तो?

अब अगर बड़ी सी आंखें दिख जाएं

और आंखों तक हँसने वाला चेहरा,

तो अटक मत जाना!

मुंह फेर लेना। 

जल्दी तय कर लेना -

जब फरीद रंग गाएंगे, किस रंग में रंगोगे तुम?

नीला तो सोचना भी मत और बसंत वाला पीला भी।  

पीला गले पड़ जाता है, माथे पर बंध जाता है!

सारे शरीर को जकड़ लेता है!

बहुत ही जिद्दड़ हैं वो!

आसमान न देखना तुम बारिश के बाद!

नीला रंग आँखों मे चढ़ जाता है ।

और हाँ! लाल रंग का भी क्या भरोसा!

जग लाल लाल लाल दिखाई देने लगे तो?

दूर रहना इन से!

अब इन्हें तुम बिल्कुल भुला देना।  


सारंगी बजाता है जो वो मोमिन खान!

लगता है लम्बा जिएगा लड़का।

हर मुरकी पर दुआएं ले जाता है लोगों के !

पर तुम्हारे लिए सारंगी अब रोने लगे तो? 

बदल लेना खिड़की! बंद कर लेना कान!

आने मत देना उसे!


तुम रात में सर न उठाना 

आसमान की ऒर न ताकना,

आधे से ज्यादा दिन चाँद टंगा  होता है!

देखना! पंख न निकल पाए फिर!!  

ज़मीन को ताकना।  

बला की खूबसूरत है वो भी! 

इमारतों और गड्ढों से भरा ये शहर 

मददगार साबित होगा!


बस! अब तुम फिर किसी के चाँद न बनना!

बस! अब ये जादू तुम बिल्कुल भूल जाना!

Wednesday, August 19, 2020

सज़ा

 सज़ा तो मेरी बनती है!

तुम्हें तुम्हारे सपनों से जो मिलवाया
अंधेरे में दुबक कर बैठे थे वो, 
मैं छू छू कर जाने कैसे पहुँच गई वहां!
तुम्हारे अँधेरे घर में घुस आई मैं,
सज़ा तो मेरी बनती है!

तुमसे वो सारी बातें सुन ली, 
जो नहीं सुनी थी किसी ने कभी
जिनको सुने अरसा हो गया था तुम्हें भी! 


और पूछ लिए सवाल.... 
मुश्किल तो हो ही गया न फिर!!
तुम्हारे इमारत के मुहार गिरने लगे!
सज़ा तो बनती थी मेरी I
सो मिली!


अब मेरी बातें जो सुनता है 

वो हर घंटे के पैसे लेता है 
बड़ा अजीब है वो इंसान!
मेरे झूठ, मेरे फरेब मुझ ही को बताता रहता है।


सज़ायाफ़्ता मैं, रोज़ सोचती हूँ, 
उसे क्या सज़ा दूँ ?

Tuesday, July 14, 2020

इस शहर का बाकी बचा इश्क़



 सोचा है ये अज़ाब ख़त्म हो तो शहर में निकलूं 

और  छू कर देखूं दिल्ली का हर कोना

हलके से हाथ फेरूं और धीरे से पूछूं, 

"इश्क़ बाकी है अब भी?"

पूछूं, "कहाँ दुखता है, बोलो?"

"कहाँ कहाँ?"

Saturday, July 4, 2020

तुम एक बार प्यार करने की कोशिश करो

 तुम एक बार प्यार करने की कोशिश करो..

देखोगे, नदी के भीतर मछलियोँ के सीने से पत्थर टूट के गिर रहे है

पत्थर, पत्थर, पत्थर और नदी-समुन्द्र का पानी 

नीला पत्थर लाल हो रहा है, लाल पत्थर नीला 
एक बार तुम प्यार करने की कोशिश करो!


सीने में कुछ पत्थरों का रहना अच्छा है ,

 कोई बुलाए तो कम से कम आवाज़ गूंज पाती है!
और सारे नंगे पैर चलने वाले रास्ते जब फिसलन से भर जाएं, 
तब वही पत्थरों का दस्ता एक के ऊपर एक बिछाकर ...
जैसे किसी कविता का नग्न इस्तेमाल
जैसे लहर , 
और जैसे कुम्हार-टोली की सलमा-चमकी-ज़री से जड़ी हुई कोई प्रतिमा,

..मैं बहुत दूर, हेंमत ऋतु के किसी मरियल तारे का दरवाजा तक देख कर आ सकता हूँ !

सीने में कुछ पत्थरों का रहना अच्छा है 
चिट्ठी का बक्सा तो अब रहा नही , 
पत्थरों के बीच मे रख आयो तो शायद काम बन जाए!
कभी कभी घर बनाने का मन भी तो करता है।


मछली के सीने के पत्थर धीरे धीरे हमारे सीने में जगह बना ले रहे है
हमें सब कुछ चाहिए। हम घर बनाएंगे -
हम सभ्यता का एक अजर स्तम्भ खड़ा करेंगे।



चांदी की चमक वाली मछली पत्थर गिराती हुई चली जाए,

 तो तुम एक बार प्यार करने की कोशिश ज़रूर करना!


~ शक्ति चट्टोपाध्याय

- Translation: Nayana 


একবার তুমি ভালোবাসতে চেষ্টা করো–

দেখবে, নদির ভিতরে, মাছের বুক থেকে পাথর ঝরে পড়ছে
পাথর পাথর পাথর আর নদী-সমুদ্রের জল
নীল পাথর লাল হচ্ছে, লাল পাথর নীল
একবার তুমি ভালোবাসতে চেষ্টা করো ।

বুকের ভেতর কিছু পাথর থাকা ভালো- ধ্বনি দিলে প্রতিধ্বনি পাওয়া যায়
সমস্ত পায়ে-হাঁটা পথই যখন পিচ্ছিল, তখন ওই পাথরের পাল একের পর এক বিছিয়ে
যেন কবিতার নগ্ন ব্যবহার , যেন ঢেউ, যেন কুমোরটুলির সালমা-চুমকি- জরি-মাখা প্রতিমা
বহুদূর হেমন্তের পাঁশুটে নক্ষত্রের দরোজা পর্যন্ত দেখে আসতে পারি ।

বুকের ভেতরে কিছু পাথর থাকা ভাল
চিঠি-পত্রের বাক্স বলতে তো কিছু নেই – পাথরের ফাঁক – ফোকরে রেখে এলেই কাজ হাসিল-
অনেক সময়তো ঘর গড়তেও মন চায় ।

মাছের বুকের পাথর ক্রমেই আমাদের বুকে এসে জায়গা করে নিচ্ছে
আমাদের সবই দরকার । আমরা ঘরবাড়ি গড়বো – সভ্যতার একটা স্থায়ী স্তম্ভ তুলে ধরবো

রূপোলী মাছ পাথর ঝরাতে ঝরাতে চলে গেলে
একবার তুমি ভালোবাসতে চেষ্টা করো ।

Who is Fumbling on Forgiveness After All?

It has been a long time since I have been musing on this topic. I wanted to write on it quite a few times but I, even I, fear being misunder...